हरिवंश राय बच्चन की “मधुशाला” हिंदी साहित्य की एक अमर कृति है। यह कविता संग्रह 1935 में प्रकाशित हुआ था और तब से आज तक इसकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। “मधुशाला” में बच्चन ने शराबखाने को एक रूपक (metaphor) के रूप में प्रयोग किया है, जिसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाया गया है।
“मधुशाला” की कविताएँ न केवल भावनाओं का सजीव चित्रण करती हैं, बल्कि समाज, धर्म, और जीवन की गहरी समझ को भी उजागर करती हैं। इसमें 135 रुबाइयाँ (quatrains) हैं, जिनमें हर रुबाई का अंतिम शब्द “मधुशाला” है। इन कविताओं में शराब, शराबी, साकी, और प्याले के माध्यम से जीवन के सत्य, संघर्ष, और आनंद का अद्भुत वर्णन किया गया है।
“मधुशाला” की कविताएँ लोगों को जीवन को एक नए दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित करती हैं। इसमें निहित दर्शन और विचारधारा आज भी प्रासंगिक हैं और पाठकों को गहराई से प्रभावित करती हैं। बच्चन की सरल भाषा और गहन भावनाएँ इस रचना को अद्वितीय बनाती हैं, और यही कारण है कि “मधुशाला” हिंदी साहित्य में एक मील का पत्थर मानी जाती है।
हरिवंश राय बच्चन की प्रसिद्ध कविता “मधुशाला” की कुछ रुबाइयाँ प्रस्तुत हैं-
- मृदु भावों के अंकुर लेकर,
आई सुंदर वसंत बहार,
साकी! अपनी मस्ती दे दे,
छेड़ दे मधु का आज तार,
मधुर मिलन, मधुर विहान के लिए,
मधुशाला के लिए मनुहार।
- मुसलमान औ’ हिन्दू हैं दो, एक, मगर उनका प्याला,
एक, मगर उनका मदिरालय, एक, मगर उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद-मंदिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद-मंदिर मेल कराती मधुशाला।
- मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ –
‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।’
- चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
‘दूर अभी है’, पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला।
हिम्मत है न बढ़ूँ आगे को मुझमें अब तो साकी जा,
एक बार आकर कह दे तू, ‘ले, यह ले तेरी मधुशाला।’
- मदिरा का रंग है हरा, साकी का रूप सुनहला,
पूजाक्रे हो या प्रेमिक हो, सजी मधुशाला हर ताला।
पंडित, मीरा औ’ गाँधी, सब पर हाले-ए-हाला,
नाच उठे कण-कण लेकर, यह सुन्दर सी मधुशाला।
हरिवंश राय बच्चन की “मधुशाला” की ये रुबाइयाँ उनकी पूरी कविता का केवल एक अंश हैं। पूरी कविता में 135 रुबाइयाँ हैं, जो जीवन, प्रेम, और समाज के विभिन्न पहलुओं पर गहन दृष्टि प्रदान करती हैं।
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