Tuesday, May 21, 2024

एडोल्‍फ हिटलर अपना पेट भरने के लिए करता था मजदूरी

एडोल्‍फ ह‍िटलर वियाना के किराये के कमरे को छोड़ने के बाद फसियन कस्बे में आकर रहने लगा। इस कस्बे में हिटलर ने अपने जीवन के पांच वर्ष गुजारे और ये पांचों वर्ष उसके अत्यन्त गरीबी से भरे थे जिसमें उसने कठोर परिश्रम किया और भयानक यातना झेली।

उन दिनों उसने पहले दैनिक मजदूरी की और फिर लघुचित्रों का निर्माता बनकर रोजी-रोटी कमाई। लेकिन ये दोनों ही काम इतने कम आय वाले थे कि उससे पेट भरने के लिए रोटी मुश्किल से ही मयस्सर हो पाती थी। उस दौर में केवल एक ही उसकी सच्ची दोस्त थी, और वह थी ‘भूख’। इस दोस्त ने उसका साथ किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़ा।

वह तेजबुद्धि था। लेकिन उसकी हालत बड़ी दयनीय थी। वैसे भी वियाना एक ऐसा राज्य था जहां किसी गरीब, भूखे, फटेहाल और बेघरों से किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी और न ही उनसे कोई हमदर्दी थी।

परिस्थितियां इतनी विकट थीं कि उसे कई-कई दिनों तक भूखा रहना पड़ता था। जब उसके पास कोइ्र काम नहीं होता तो वह पुस्‍तकालयों में जाकर अखबार पढ़ता और शाम के समय किसी चाय की दुकान पर बैठकर राजनीति की चर्चायें करता। जब कोई चाय मंगवाता तो उसे भी चाय मिल जाती थी।

फेसियन कस्‍बे में रहते हुए अडोल्‍फ ने पहले दैनिक मजदूरी पर काम करना आरंभ किया। बचे समय में वह चित्र बनाकर सस्‍ते दामों पर दुकानों में बेच देता था। वह अपने थैले में रखे कागज के टुकड़ों पर ब्रुश व रंगों से चित्र बनाता। यह कार्य वह पार्क की किसी बेंच पर बैठकर करता था। रात होने पर चित्र बनाता-बनाता वह वहीं सो जाता। उन चित्रों को बेचने से उसे जो आमदनी होती थी, वह उसी से किसी प्रकार से अपना गुजारा कर लेता था।

एडोल्‍फ को पुस्‍तकें पढ़ने का बहुत शौक था। लेकिन इन कठिन परिस्थितियों में उसे अपना यह शौक पूरा करना नामुमकिन लग रहा था। वजह यह थी कि यदि वह पढ़ने के लिए पुस्‍तकें खरीदता तो फिर खाने के लिए पैसा कंहा से लाता? जिसका मतलब था कि उसे आने वाले दिनों में भूखा रहना पड़ता।

उन्‍हीं दिनों फेसियन जाति के एक व्‍यक्‍त‍ि से हिटलर की दोस्ती हो गयी. जिससे कभी हिटलर के विचार नहीं मिले। मगर हिटलर ने उसके साथ रहकर जितना कुछ सीखा, उतना उसे कभी सीखने को नहीं मिला। आपस में झगड़ा करते हुए भी दोनों ने अपनी-अपनी दोस्ती को कायम रखा।

एडोल्फ हिटलर को जहां देश के प्रति अत्याधि‍क लगाव था, वहीं उसे वास्तुकला से भी कम प्रेम नहीं था। वह वास्तुकला का अध्ययन करने, संगीत समारोह में जाने तथा नई-नई पुस्तकें खरीदने के लिये कई-कई दिन तक भूखा रह सकता था। उसे अपनी भूख से इतना प्यार नहीं था जितनी कि इन तीनों चीजों में दिलचस्पी थी।

सबसे पहले वह अपनी रोजी-रोटी का प्रबन्ध करता, उसके बाद वह पूरी निष्ठा और लगन के साथ अध्ययन करने लग जाता था। इस प्रकार कुछ ही वर्षों में उसने ज्ञान का वृहद् भण्डार एकत्रित कर लिया था।

 

उन प्रतिकूल परिस्थितियों के विषय में अपनी आत्मकथा में लिखा है-

उस समय मैंने जो भी ज्ञान प्राप्त किया। उससे आगे चलकर मुझे लाभ हुआ। तब मुझे उससे भी ज्‍यादा एक लाभ यह हुआ कि मेरे मस्तिष्क में जीवन व संसार के प्रति निश्चित दष्टिकोण तथा मेरे आचरण का यह  स्‍थायी आधार बन गया। तब से इस आधार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। आज मेरा पूर्ण विशवास है कि सामान्यत: यौवन में ही रचनात्मक विचारों का आधार तैयार  होता है। चाहे वह विचार कैसे भी हों!

आयु की परिपक्वता और युवावस्था की रचनात्मक योग्यता में जो अंतर होता है,मैं उसे समझता हूँ। आयु की बद्धिमत्ता अधिक गहराई और दूरदर्शिता से पैदा होती है, जो लंबे जीवन के अनुभवों पर आधारित होती है, जबकि यौवन की प्रतिभा विचारों और धारणाओं की असीम शक्ति से अंकुरित होती है। परन्तु जिन्हें आधिक्य के कारण व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। ये भविष्य के लिए भवन निर्माण सामग्री और योजनाएं उपलब्ध कराती है। भविष्य की इमारत का निर्माण आयु के पत्थरों से होता है। बस शर्त यही है कि बुद्धिमत्ता ने यौवन की रचनात्मक प्रतिभा को बुझा न दिया हो।

जब मैंने अपने माता-पिता के साथ जितना भी जीवन बिताया, तब मैं अपने भविष्य की ओर से निश्चिंत था। मुझे पता नहीं था कि कभी जीवन में मुझे कठिन परिस्थितियों और दुःखों से भी जूझना होगा। जिन लोगों के साथ मैंने अपनी युवावस्था का समय बिताया, वे लोग लघु बुर्जुआ वर्ग से सम्बन्धित थे। इन लोगों का पूरी ईमानदारी के साथ शारीरिक श्रम द्वारा आजीविका कमाने  वालों की दुनिया से कोई संबंध नहीं था।”

शताब्दी के प्रारंभ में वियाना की गिनती उन शहरों में होने लगी थी जिनकी सामाजिक मान्यताएं अन्यायपूर्ण थीं। उस शहर में सामाजिक भिन्नता थी। एक ओर जहां चकाचौंध कर देने वाला आकर्षण था, तो दूसरी ओर घृणास्पद लाचारी की भयानक विषमता मौजूद थी।

पूरे शहर में साम्राज्यवाद की हलचल होने लगी थी। तब उस शहर की आबादी 5.2 करोड़ थी। बहुजातियों से निर्मित इस राज्य की बात ही कुछ और थी। अजीब शानो-शौकत तो नायाब तौर-तरीके। फोर्ट की चौंधिया देने वाली चमक सम्पूर्ण विश्व के राज्यों के वाणिज्य और प्रतिभा के लिये चुम्बक थी। हैब्जबर्ग राजतन्त्र की समस्त शक्तियों के केन्द्रीयकरण की पुरानी नीति ने अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिये इस आकर्षण को और चमका दिया था।

मगर इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण नगर उच्च अधिकारियों का नगर बन गया था। अर्थात् यह महानगर होने के साथ-साथ शाही निवास भी बन गया था। जबकि एडोल्फ को गरीबी से ग्रस्त लोगों के बीच रहने पर मजबूर होना पड़ रहा था।

एडोल्फ एक बेकार और बेरोजगार व्यक्ति होने के कारण कोई भी काम करने को तैयार था। वह किसी प्रशिक्षित व्यक्ति के रूप में काम नहीं तलाश सकता था। उसकी इच्छा तो केवल यही थी कि वह इतना कमा सके, जिससे कि वह अपने पेट की आग को बुझा सके।

एडोल्फ की हालत उन दिनों बिल्कुल विदेशियों जैसी थी, जो अपने पांव से यूरोप की धूल, नयी दुनिया में नये अस्तित्व की नींव दृढ़ विश्वास के साथ रखने के लिये फांकते थे, ताकि अपने लिये भवन निर्माण कर सके। ऐसे लोग वर्ग जाति, परिवेश और परम्पराओं को ताक पर रखकर किसी भी उपलब्ध काम को करने के लिये तैयार रहते थे। उनके मन में यह धारणा होती थी कि ईमानदारी से किये गये कोई भी काम में अपमान कैसा? भले ही कोई भी हो।

एडोल्‍फ हिटलर भी ऐसे ही लोगों में था। उसने नई दुनियां में प्रवेश करने के लिए अपने कदमों को आगे बढ़ाने का संकल्‍प ले लिया था। एडोल्‍फ को महानगर में ऐसी गंभीर परिस्थितियों का सामना करना पड़ा कि जिसे भूल जाना उसके लिये संभव नहीं था कभी-कभी तो उसे ऐसा लगता कि जैसे भाग्‍य उसके साथ कोई खेल-खेल रहा है। जीवन के अनुभवों से उसके सामने एक बात स्‍पष्‍ट हो गयी थी कि काम से अचानक बेकारी और बेकारी से काम और फिर बेकारी। ऐसे आय और व्‍यय में बहुत उतार-चढ़ाव आते हैं। इससे फिजूलखर्ची और सूझबूझ से खर्च करने की आदत छूट जाती है।

बात स्पष्ट हो गयी थी कि काम स अचानक बेकारी और बेरोजगारी में मजदूर को जिन अभावों को झेलना पड़ता है, उसकी मनोवैज्ञानिक सच से क्षतिपूर्ति लगातार उस मानसिक मरीचिकाओं से होती है जिनके साथ वह पेट भर कर खाने की कल्पना करता है। उसका यह स्वप्न एक अभिलाषा और अभिलाषा एक दरिद्र आवेग में बदल जाता है। यह आवेग काम का वेतन मिलने पर संयम के सभी बांध तोड़ देता है।

मजदूरों का परिवार भी होता है, जैसे पत्नी और बच्चे। पुरुष यदि अपने परिजनों को प्यार करता है तो वह उनके लिये सुख-साधन जुटाने की कोशिश भी करता है। लेकिन उसे अपनी इच्छा को पूरी करने के लिये पूरे सप्ताह की कमाई को दो-तीन दिन में खर्च करना पड़ता है। क्योंकि वह जितना पूरा एक सप्ताह में कमाता है, उससे उसके परिवार का पेट केवल दो-तीन दिन ही भर सकता है। लेकिन उसके बाद उसकी और उसके परिवार को भूखे पेट ही अपना वक्त गुजारना पड़ता है। ऐसे में पत्नी नजर बचाकर पड़ोस में जाती है और उधार से खर्च चलाती है।

एडोल्फ ने ऐसे सैकड़ों श्रमिकों के परिवारों को देखा था जो सप्ताह में दो दिन ही पेट भर खाते थे।; बाकी के दिन उन्हें भूखे रहकर गुजारने पड़ते थे। ऐसे परिवारों के पेट भर खाने का स्वप्न देखते छोटे बच्चे अपने बचपन के दिनों में ही लाचारी और दीनता से परिचित हो जाते थे। उसने ऐसे भी अनेकों श्रमिकों को देखा, जिन्हें अपने बीवी बच्चों से कोई सरोकार ही न था। वह अपने सप्ताह भर का कमाई को शराब पीने में ही उड़ा देते थे। और बीवी-बच्‍चे भूखे मरते थे।

एडोल्फ जिन लोगों के बीच रहता था, उनके विषय में विस्तार जानने के लिये एक तरह जहाँ वह उनसे बाहरी रूप से जूझ रहा था, वहीं दूसरी ओर वह उन कारणों को जानने के लिये खोज में लगा था। जो उनकी इस हालत के जिम्‍मेदार थे। वे इंसान होकर भी इंसानियत से दूर थे। बल्कि कुछ घणित कानूनों का शिकार थे। वे दुर्भाग्य, गंदगी, बाहरी अपमान तथा दीनता में भरे हुए थे। परिस्थितियों के दबाव में आकर अपने उन अपमानित लोगों को देखकर उसकी भी भावनात्‍मक अनुभूति लुप्‍त हो गयी थी।

कारण-वह खुद उन विषमताओं  से दो- चार हो चुका था। वैसे भी उनक प्रति भावुक होना बेकार समझता था।

उन दिनों उन परिस्थितियों में सुधार लाने के लिये अडोल्फ ने दो उपाय सोचे-

पहला उपाय यह कि-“जनता में सामाजिक दायित्वों की गहन भावना उत्पन्न करके, सामाजिक विकास की मौलिक स्थितियों को स्थापित करना।”

दूसरा उपाय यह है कि- “जिन बराइयों का सुधार संभव नहीं है। उनके चयन के लिये निर्दयतापूर्वक सामाजिक भावनाओं को उकसाया जाना ।”

वियाना में अपने संघर्ष के दिनों में ही एडोल्फ ने इस बात का भली-भांति जान लिया था कि सभी सामाजिक गतिविधियों का खात्मा परोपकार के रुप में मात्र भावना के स्तर पर कभी नहीं होता। क्योंकि यह बिल्कुल ही उपहासजनक और बेकार लगता है। अतः प्राकतिक कमियों को खोजकर उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने का उपाय खोजने की ही आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन में कोशिश होनी चाहिये।

एक दिन हिटलर चाय की दुकान पर बैठा वहाँ अखबार पढ़ रहा था। तभी उसके पास एक व्यक्ति आकर बैठा और ध्यानपूर्वक उसके चेहरे को देखने लगा।

हिटलर को उसके बैठने से कुछ असुविधा हुई, तो उसने अखबार पर से नजरें हटा कर आगन्तुक की ओर देखा।

आगन्तुक शायद इसी क्षण की प्रतीक्षा में था, वह झट से उससे बोला- “मुझे लगता है कि मैंने आपको पहले भी कहीं देखा है?” युवक की बात सुनकर हिटलर मुस्कुराया और बोला-

“लेकिन मैं तो आपको बिल्कुल नहीं जानता।”

“क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ?” युवक ने विनम्रता से पूछा।

“क्यों नहीं!” अडोल्फ अपनी पूर्व मुस्कुराहट के साथ बोला- “मेरा नाम एडोल्फ हिटलर है।”

“आप कहां रहते हैं?” युवक ने अगला सवाल किया।

उसका सवाल सुनकर हिटलर ने तह करके अखबार वहीं रख दिया और उस युवक की बातों में रुचि लेते हुए, उसे जवाब देते हुए बताया-

 “मेरा यहाँ कोई ठिकाना नहीं है। मैं एक अलमस्त आदमी हूँ, घर परिवार है नहीं, इसलिये जहाँ भी रात होती है, वहीं पड़कर सो जाता हूँ….और अपनी रात गुजार लेता हूँ।”  “याद आया!” वह युवक चुटकी बजाता हुआ तपाक से बोला, जैसे किसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी हो। वह आगे कहने लगा-“मैंने आपको एक दो वर्ष पूर्व एक गली में देखा था।”

“गलियों में घूमना मेरा शौक है।” अडोल्‍फ ने सहजता से उत्‍तर देते हुए कहा- मुझे शहर की बड़ी-बड़ी इमारतों को देखने का शौक है,  क्‍योंकि मैं एक अच्‍छा वास्‍तुकार बनना चाहता हूं। आपने मुझे किसी गली में घूमते देख लिया होगा।”

“नहीं” वह जल्दी से बोला- मैंने आपको तब देखा था,  जब आपने एक यहूदी औरत से एक बच्‍चे को पिटते हुए बचाया था….  और आप उस बच्‍चे को अपने साथ ले गये थे।”

“आपको वह छोटी-सी घटना अभी तक याद है।” अडोल्‍फ ने हंसकर पूछा।

“श्रीमान जी!” वह विनम्रता से बोला-“क्‍योंकि वियाना जैसे शहर में यह घटना छोटी नहीं थी। पहली बार किसी ने किसी के प्रति दया भाव दिखाया था। वरना कौन किस पर दया करता है! “

एडोल्फ उसकी बात सुनकर चुप रहा। तब उसी युवक ने आगे पूछा-“कहाँ है वह बच्चा?”

“तुम क्यों पूछ रहे हो?” अडोलफ ने पूछा-“क्या तुम्‍हार उससे कोई सम्बन्ध था?”

नहीं।” वह जवाब देते हुए वाला-“मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था उससे मैं तो बस ऐसे ही पूछ रहा था। अगर तुम्हें बताने से कोई ऐतराज है तो मत बताओ।”

“मुझे क्यों ऐतराज होने लगा!” अडोल्फ बोला-“वैसे में तुम्हें बता दूं  कि मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता।”

“क्यों?”

“क्योंकि मैंने उसे उसी के हाल पर छोड़ दिया था।”

 “आह!” युवक ने पूछा-“मगर क्यों?

“क्योंकि मैं खुद उन दिनों अपने रिश्तेदारों के पास रहता था। फिर भला मैं उसके लिये क्या कर सकता था!” इतना कहकर हिटलर ने युवक से पूछा-“आपने अपने बारे में अभी तक कुछ बताया ही नहीं?”

“मेरा नाम जोसफ ग्रेनरी है।”

“क्या काम करते हो?”

“बेकार हूं, कुछ काम नहीं करता। हाँ, काम की तलाश में पूरा-पूरा दिन मारा-मारा फिरता हूँ। क्या आप इस मामले में मेरी कोई सहायता कर सकते है।

“काम का क्या है? काम तो यहाँ मिल ही जायेगा। यह धनवानों का शहर है, यहाँ भला काम की क्या कमी है! मगर…

“मगर क्या?” हिटलर को चुप होते देखकर उस युवक ने पूछा।

“यहां काम करने के लिये अपने स्वाभिमान की बलि देनी पड़ती  है। तभी कोई काम मिल पाता है।”

“ठीक कहते हैं आप।” युवक ने हिटलर से सहमति जताते हुए कहा-“एक बार मैं काम की तलाश में घूमता-घूमता मार्क्सवादी कैंप में गया था। तब एक मार्क्सवादी ने मुझे से कहा था कि हमारे दल में शामिल हो जाओ, मजदूरी की चिन्ता मत करो ,वह भी अवश्य ही मिलेगी। उसने यह भी कहा था कि वह दिन दूर नहीं, जब मजदूरों की तानाशाही होगी। गरीबी समाप्त हो जायेगी। फिर कोई अमीर किसी गरीब का शोषण नहीं कर सकेगा।”

उस युवक की इस बात से हिटलर समझ गया कि वह युवक फ्रॉड है, वह कोई बेरोजगार युवक नहीं है, बल्कि वह मार्क्सवादियों का चमचा है, जिसका कार्य गरीब तथा असहाय लोगों को बहका-फुसला कर, और उन्हें ऊँचे सपने दिखा कर, मार्क्सवादियों में शामिल करना है। यही सब सोचकर अडोल्फ ने उस युवक से पूछा-“क्या तुम जर्मन हो?”

“हाँ, बिल्कुल ।” युवक ने तत्काल सहमति दी।

“क्या मैं आपसे एक सवाल कर सकता हूँ?” एडोल्फ ने पूछा।

“हाँ, क्यों नहीं।”

“ये मार्क्सवादी कौन हैं?”

“यहूदी हैं।”

“और तुम यहूदियों के तलवे चाटने वाले चमचे हो?” अडोल्फ हिटलर ने थोड़ा आवेश से भरकर कहा।

उस युवक ने हिटलर की बात का कोई बुरा न मानते हुए कहा-“मुझे तो लगता है कि जर्मन से ज्यादा यहूदी बुद्धिमान होते हैं।”

युवक अभी भी हिटलर को फुसलाने का प्रयास कर रहा था। युवक की यह बात सुनकर हिटलर का अपने आप पर नियन्त्रण न रहा और दुबारा आवेश में भर कर बोला-“मुझे तुम जैसे जर्मन से बात करने में भी लज्‍जा आ रही है। तुम जैसे जर्मन जाति, समुदाय, समाज तथा देश के नाम पर कलंक हो। इससे तो अच्छा यही होता कि तुम किसी यहूदी के घर जन्म लेते।” इतना कहकर हिटलर वहाँ रुका नहीं। उसने एक नजर वहाँ रखे अखबार पर डाली और दूकान से बाहर निकल गया।

 

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