सती प्रथा एक प्राचीन भारतीय रीति थी जिसमें किसी महिला को अपने पति की मृत्यु के बाद उसकी चिता पर स्वयं को जीवित जलाने के लिए मजबूर किया जाता था। इस प्रथा का उल्लेख वेदों और अन्य प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में मिलता है, हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि यह कब और कैसे शुरू हुई। इस प्रथा का प्रचलन मुख्य रूप से राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों में था।
सती प्रथा का इतिहास
सती प्रथा की जड़ें प्राचीन भारतीय समाज में पाई जाती हैं। सबसे पुराने साक्ष्य गुप्त काल (चौथी से छठी शताब्दी) के समय के माने जाते हैं। हालांकि, यह माना जाता है कि सती प्रथा का अस्तित्व उससे पहले भी रहा होगा।
- प्राचीन काल: प्राचीन ग्रंथों में सती प्रथा का उल्लेख मिलता है, लेकिन इसे धार्मिक अनुष्ठान के रूप में स्थापित करने का कोई ठोस प्रमाण नहीं है। ऋग्वेद और अन्य वेदों में इस प्रकार की प्रथाओं का उल्लेख नहीं है।
- मध्यकाल: मध्यकाल में इस प्रथा का प्रचलन बढ़ गया था। राजपूत राज्यों में इसे उच्च कुल और वीरता की निशानी माना जाता था। राजपूत योद्धाओं की पत्नियां अपने पति की मृत्यु के बाद सम्मानपूर्वक सती होती थीं।
- मुगल काल: मुगल शासकों के समय में भी सती प्रथा जारी रही। हालांकि, कुछ मुगल शासकों ने इस प्रथा के खिलाफ कड़े कदम उठाए, लेकिन इसे पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सका।
- ब्रिटिश काल: 18वीं और 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासकों ने सती प्रथा के खिलाफ अभियान चलाया। राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने भी इस प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई। 1829 में ब्रिटिश गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने सती प्रथा को अवैध घोषित किया और इसे प्रतिबंधित कर दिया।
सती प्रथा का सामाजिक, धार्मिक कारण
- धार्मिक मान्यताएं: ऐसा माना जाता था कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी का जीवन निरर्थक हो जाता है। सती होने से महिला को अपने पति के साथ स्वर्ग में स्थान मिलता था। यह भी माना जाता था कि सती होने से पति की आत्मा को शांति मिलती है।
- सामाजिक दबाव: सती प्रथा सामाजिक दबाव का भी परिणाम थी। समाज में विधवा महिलाओं को अशुभ माना जाता था और उनके प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जाता था। समाज की दृष्टि में सम्मान बनाए रखने के लिए महिलाएं सती होने के लिए मजबूर होती थीं।
- संपत्ति के अधिकार: विधवा महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को लेकर भी सती प्रथा को प्रोत्साहित किया जाता था। सती होने से पति की संपत्ति उसके परिवार के पास रहती थी और विधवा महिला का अधिकार समाप्त हो जाता था।
- वीरता और सम्मान: विशेष रूप से राजपूत समाज में, सती प्रथा को वीरता और सम्मान की निशानी माना जाता था। महिलाओं को सती होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था ताकि उनका नाम समाज में आदरपूर्वक लिया जाए।
सती प्रथा की आखिरी घटना
सती प्रथा की आखिरी ज्ञात घटना 1987 में राजस्थान के सती गाँव, देवराला में घटित हुई थी। इस घटना में रूप कँवर नामक 18 वर्षीय महिला ने अपने पति की मृत्यु के बाद स्वयं को सती कर लिया था। रूप कँवर की सती होने की घटना ने पूरे देश में हंगामा मचा दिया और यह विषय राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का केंद्र बन गया।
इस घटना के बाद, भारतीय सरकार ने सती प्रथा के खिलाफ कठोर कानून बनाए और 1987 में सती (निवारण) अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत सती प्रथा को प्रोत्साहित करने, उसे बढ़ावा देने और उसका महिमामंडन करने पर सख्त सजा का प्रावधान किया गया।
रूप कँवर की घटना ने सती प्रथा के खिलाफ जनजागरूकता और कानूनी कार्रवाई को तीव्र किया, जिससे इस अमानवीय प्रथा को हमेशा के लिए समाप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए गए।
इतिहास का काला अध्याय
सती प्रथा एक क्रूर और अमानवीय प्रथा थी जो कई सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कारणों से उत्पन्न हुई थी। हालांकि, समाज सुधारकों और ब्रिटिश शासन के प्रयासों से इसे कानूनी रूप से समाप्त कर दिया गया। आज, यह प्रथा इतिहास का एक काला अध्याय है, जो हमें याद दिलाता है कि कैसे अज्ञानता और अंधविश्वास ने समाज में महिलाओं की स्थिति को प्रभावित किया। आधुनिक समाज में हमें ऐसी प्रथाओं से सबक लेकर समानता और न्याय की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
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