जहां नदी बहती थी, वहां अब दीवारें हैं-अतिक्रमण की भूमिका
Flood Fury or Policy Failure: बाढ़ को अक्सर प्राकृतिक आपदा कहा जाता है, लेकिन जब हम नदी के बहाव क्षेत्र में घर, कॉलोनी, होटल या फार्महाउस बना लेते हैं, तो यह आपदा मानव निर्मित बन जाती है। अतिक्रमण और अवैध निर्माण न केवल जलधारा को बाधित करते हैं, बल्कि बाढ़ की तीव्रता को भी बढ़ाते हैं। इस लेख में हम समझेंगे कि कैसे प्रशासनिक लापरवाही, राजनीतिक दबाव और आम जनता की अनभिज्ञता मिलकर बाढ़ को न्योता देती है। यह भाग उन कारणों को उजागर करता है जो बाढ़ को प्राकृतिक नहीं, बल्कि नियोजित संकट बना देते हैं।
नदी किनारे निर्माण: एक आम लेकिन खतरनाक प्रवृत्ति
नदी के किनारे निर्माण करना कई लोगों को आकर्षक लगता है-सुंदर दृश्य, सस्ती जमीन और व्यापारिक लाभ। लेकिन यही प्रवृत्ति बाढ़ (Flood) का कारण बनती है। जब नदी के फ्लडप्लेन में घर या दुकानें बनती हैं, तो जलधारा बाधित होती है। बाढ़ के समय पानी को फैलने की जगह नहीं मिलती और वह बस्तियों में घुस जाता है। यह निर्माण न केवल अवैध होता है, बल्कि जानलेवा भी।
प्रशासनिक लापरवाही: नक्शा पास कैसे होता है?
कई बार नगर निगम या ग्राम पंचायत बिना पर्यावरणीय जांच के नक्शा पास कर देती है। जल निकासी, नदी बहाव और फ्लडप्लेन की अनदेखी कर दी जाती है। यह लापरवाही बाद में बाढ़ के रूप में सामने आती है। नक्शा पास करने की प्रक्रिया में पारदर्शिता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी बाढ़ (Flood) को जन्म देती है। प्रशासन को जवाबदेह बनाना जरूरी है।
राजनीतिक दबाव और निर्माण की अनुमति
राजनीतिक प्रभाव के कारण कई बार अवैध निर्माण को नजरअंदाज किया जाता है। नेताओं के दबाव में प्रशासन आंखें मूंद लेता है और नदी के किनारे निर्माण कार्य चलता रहता है। जब बाढ़ आती है, तो वही नेता राहत सामग्री बांटते हैं। यह चक्र तब तक चलता रहेगा जब तक निर्माण नीति में पारदर्शिता और जवाबदेही नहीं लाई जाती।
अवैध कॉलोनियों और प्लॉटिंग का जाल
नदी के किनारे अवैध कॉलोनियों की प्लॉटिंग कर दी जाती है-बिना किसी स्वीकृति या सुरक्षा मानकों के। लोग सस्ते प्लॉट खरीदते हैं और घर बना लेते हैं। बाद में जब बाढ़ (Flood) आती है, तो नुकसान उठाना पड़ता है। यह प्लॉटिंग माफिया और प्रशासन की मिलीभगत से होती है। इसे रोकना बाढ़ प्रबंधन की पहली शर्त है।
निर्माण सामग्री और नदी का अतिक्रमण
कई बार निर्माण कार्य के लिए नदी से बालू, पत्थर और पानी लिया जाता है। इससे नदी की गहराई और बहाव प्रभावित होती है। साथ ही नदी के किनारे निर्माण सामग्री जमा कर दी जाती है, जिससे जलधारा बाधित होती है। यह अतिक्रमण बाढ़ को और गंभीर बना देता है। निर्माण कार्य को नदी से दूर रखना अनिवार्य है।
पर्यावरणीय स्वीकृति की अनदेखी
किसी भी निर्माण कार्य के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति जरूरी होती है-खासकर नदी के पास। लेकिन अक्सर यह प्रक्रिया या तो होती नहीं, या कागजी खानापूरी बनकर रह जाती है। पर्यावरणीय स्वीकृति के बिना निर्माण करना न केवल गैरकानूनी है, बल्कि पर्यावरणीय संकट को जन्म देता है। इसे सख्ती से लागू करना होगा।
बाढ़ के समय राहत नहीं, पुनर्विचार चाहिए
जब बाढ़ (Flood) आती है, तो प्रशासन राहत सामग्री बांटता है-लेकिन यह अस्थायी समाधान है। असली जरूरत है पुनर्विचार की: क्या उस स्थान पर निर्माण होना चाहिए था? क्या भविष्य में वहां निर्माण रोका जाएगा? राहत से ज्यादा जरूरी है नीति में सुधार और अतिक्रमण पर रोक।
समाधान: निर्माण नीति और जन-जागरूकता
बाढ़ से बचाव के लिए निर्माण नीति को सख्त करना होगा। नदी के किनारे निर्माण पर पूर्ण प्रतिबंध लगे, और फ्लडप्लेन को संरक्षित किया जाए। साथ ही आम जनता को जागरूक किया जाए कि सस्ती जमीन का मतलब सुरक्षित जमीन नहीं होती। स्कूलों, मीडिया और प्रशासन को मिलकर जन-जागरूकता अभियान चलाना होगा।
बाढ़ सिर्फ पानी नहीं लाती, जीवन को बहा ले जाती है-सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव
बाढ़ (Flood) केवल पानी का बहाव नहीं, बल्कि जीवन की दिशा बदल देने वाली आपदा है। जब नदी के रास्ते में निर्माण होता है, तो उसका असर केवल इमारतों पर नहीं, बल्कि समाज, पर्यावरण और भविष्य की पीढ़ियों पर भी पड़ता है। बाढ़ सामाजिक असमानता को बढ़ाती है, गरीबों को सबसे अधिक प्रभावित करती है, और पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ देती है। बाढ़ के प्रभावों को अक्सर राहत सामग्री और आंकड़ों के पीछे छिपा दिया जाता है-लेकिन इसका असर वर्षों तक बना रहता है।
गरीब और ग्रामीण समुदाय सबसे अधिक प्रभावित
बाढ़ का सबसे बड़ा असर गरीब और ग्रामीण परिवारों पर पड़ता है। उनके पास न तो पक्के घर होते हैं, न ही सुरक्षित स्थान पर जाने की सुविधा। खेत, पशु, घर और रोजगार-सब कुछ बह जाता है। राहत सामग्री कुछ दिन की मदद देती है, लेकिन पुनर्निर्माण की प्रक्रिया लंबी और खर्चीली होती है। बाढ़ सामाजिक असमानता को और गहरा कर देती है।
शिक्षा पर पड़ता है गहरा असर
बाढ़ के दौरान स्कूल बंद हो जाते हैं, किताबें और यूनिफॉर्म बह जाते हैं। कई बच्चे महीनों तक पढ़ाई से दूर हो जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्कूल भवन ही क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। इससे बच्चों की शिक्षा बाधित होती है और ड्रॉपआउट दर बढ़ जाती है। बाढ़ (Flood) शिक्षा के अधिकार को भी प्रभावित करती है, खासकर गरीब बच्चों के लिए।
स्वास्थ्य संकट और बीमारियों का खतरा
बाढ़ के बाद गंदा पानी, मलेरिया, डेंगू, हैजा जैसी बीमारियां फैलती हैं। अस्पतालों में दवाओं की कमी और इलाज की सुविधा बाधित हो जाती है। ताजे पानी की उपलब्धता भी कम हो जाती है। बाढ़ के बाद का स्वास्थ्य संकट अक्सर राहत योजनाओं से बाहर रह जाता है, जबकि इसका असर सबसे अधिक होता है।
पलायन और मानसिक तनाव
बाढ़ के कारण लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं। कई परिवार शहरों की ओर पलायन करते हैं, जहां उन्हें रोजगार और आवास की समस्या का सामना करना पड़ता है। साथ ही मानसिक तनाव, अवसाद और असुरक्षा की भावना भी बढ़ती है। बाढ़ (Flood) केवल भौतिक नुकसान नहीं, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक अस्थिरता भी लाती है।
पर्यावरणीय असंतुलन और जैव विविधता पर असर
बाढ़ (Flood) से मिट्टी का कटाव, पेड़ों की जड़ें उखड़ना और जल स्रोतों का प्रदूषण होता है। नदी किनारे रहने वाले पक्षी, जानवर और पौधे प्रभावित होते हैं। जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र कमजोर होता है। यह असर वर्षों तक बना रहता है और पुनर्स्थापन कठिन होता है।
जल स्रोतों का प्रदूषण और पेयजल संकट
बाढ़ के दौरान नालों, शौचालयों और कचरे का पानी नदी और तालाबों में मिल जाता है। इससे जल स्रोत प्रदूषित हो जाते हैं और पीने के पानी की समस्या पैदा होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में हैंडपंप और कुएं भी प्रभावित होते हैं। यह संकट स्वास्थ्य और जीवन दोनों को प्रभावित करता है।
कृषि और पशुपालन पर विनाशकारी असर
बाढ़ से खेतों में खड़ी फसलें नष्ट हो जाती हैं, मिट्टी की उर्वरता घट जाती है और बीज बह जाते हैं। पशुओं के लिए चारा और आश्रय नहीं बचता। इससे किसानों को भारी आर्थिक नुकसान होता है। कई बार उन्हें कर्ज लेना पड़ता है, जिससे उनका जीवन और कठिन हो जाता है।
दीर्घकालिक सामाजिक अस्थिरता
बाढ़ का असर केवल कुछ दिनों का नहीं होता-यह वर्षों तक समाज को प्रभावित करता है। पुनर्वास, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की चुनौतियां लंबे समय तक बनी रहती हैं। अगर बाढ़ (Flood) बार-बार आती है, तो पूरा क्षेत्र अस्थिर हो जाता है। इसलिए बाढ़ को केवल आपदा नहीं, बल्कि दीर्घकालिक सामाजिक संकट मानना चाहिए।
राहत की गाड़ी आती है, लेकिन इजाजत किसने दी थी?-प्रशासनिक विडंबना
बाढ़ (Flood) के समय प्रशासनिक मशीनरी सक्रिय हो जाती है-राहत सामग्री, नाव, मेडिकल टीम और मीडिया कवरेज। लेकिन सवाल यह है कि क्या यही जिम्मेदारी है? जब नदी के बहाव क्षेत्र में निर्माण की अनुमति दी जाती है, तो वही प्रशासन बाद में राहत बांटता है। यह विडंबना दर्शाती है कि नीति और क्रियान्वयन में गहरी खाई है। बाढ़ से पहले की लापरवाही और बाद की सक्रियता एक चक्र बन चुकी है-जिसमें जनता को राहत तो मिलती है, लेकिन जवाबदेही नहीं।
बाढ़ से पहले की चुप्पी, बाद की सक्रियता
हर साल बाढ़ आने से पहले प्रशासनिक तंत्र लगभग निष्क्रिय रहता है। नदी के बहाव क्षेत्र में निर्माण होते हैं, जल निकासी की व्यवस्था बिगड़ती है, और अतिक्रमण पर कोई कार्रवाई नहीं होती। लेकिन जैसे ही बाढ़ आती है, राहत टीम, नाव, मेडिकल स्टाफ और मीडिया की गहमागहमी शुरू हो जाती है। यह दोहरा रवैया दर्शाता है कि संकट को रोकने की बजाय उसका इंतजार किया जाता है। असली जिम्मेदारी बाढ़ (Flood) से पहले की तैयारी में है, न कि बाद की राहत में। जब तक प्रशासनिक सोच में यह बदलाव नहीं आएगा, तब तक बाढ़ एक नियमित त्रासदी बनी रहेगी।
नक्शा पास करने वालों की जवाबदेही कहां है?
जब नदी के किनारे कॉलोनी, होटल या फार्महाउस बनते हैं, तो उनका नक्शा किसी अधिकारी द्वारा पास किया गया होता है। सवाल यह है कि क्या उस अधिकारी ने फ्लडप्लेन, जल निकासी और पर्यावरणीय स्वीकृति की जांच की थी? बाढ़ (Flood) आने पर राहत देने वाले तो सामने आते हैं, लेकिन निर्माण की अनुमति देने वाले कभी जवाब नहीं देते। यह प्रशासनिक जवाबदेही का गंभीर संकट है। यदि नक्शा पास करने की प्रक्रिया में पारदर्शिता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाए, तो बाढ़ की संभावना को काफी हद तक कम किया जा सकता है। जवाबदेही तय करना अब अनिवार्य हो गया है।
राहत सामग्री से समस्या हल नहीं होती
बाढ़ के समय चावल, दाल, कंबल और दवाएं बांटी जाती हैं। यह जरूरी है, लेकिन अस्थायी समाधान है। असली समस्या यह है कि बाढ़ (Flood) आई क्यों? क्या उसे रोका जा सकता था? क्या निर्माण नीति में सुधार हुआ? जब तक हम राहत को ही समाधान मानते रहेंगे, तब तक बाढ़ बार-बार आती रहेगी। नीति में दीर्घकालिक सोच जरूरी है-जिसमें रोकथाम, पुनर्वास और पर्यावरणीय संतुलन को प्राथमिकता दी जाए। राहत से आगे बढ़कर हमें स्थायी समाधान की ओर देखना होगा, वरना हर साल वही कहानी दोहराई जाएगी।
मीडिया कवरेज और राजनीतिक दिखावा
बाढ़ के समय नेता और अधिकारी कैमरे के सामने राहत बांटते हैं। मीडिया इसे “मानवीय पहल” कहकर दिखाता है। लेकिन क्या यही असली काम है? क्या बाढ़ (Flood) को रोकने के लिए कोई योजना बनाई गई थी? क्या निर्माण की अनुमति देने वालों पर कार्रवाई हुई? यह दिखावा जनता को भ्रमित करता है और असली जिम्मेदारियों से ध्यान हटाता है। बाढ़ को रोकने के लिए दीर्घकालिक नीति, पारदर्शिता और जवाबदेही जरूरी है-न कि केवल कैमरे के सामने की सक्रियता। मीडिया को भी राहत से आगे की सच्चाई दिखानी चाहिए।
पुनर्वास नीति की असंगतियां
बाढ़ प्रभावित लोगों को पुनर्वास देने की बात होती है, लेकिन जमीन, मकान और रोजगार की व्यवस्था अधूरी रहती है। कई बार पुनर्वास स्थल नदी के पास ही होता है, जिससे अगली बाढ़ में फिर वही संकट आता है। पुनर्वास नीति में स्थायित्व और सुरक्षा का अभाव है। इसके अलावा पुनर्वास प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं होती-कौन पात्र है, किसे प्राथमिकता मिलेगी, यह स्पष्ट नहीं होता। जब तक पुनर्वास को दीर्घकालिक और सुरक्षित दृष्टिकोण से नहीं देखा जाएगा, तब तक बाढ़ के बाद की जिंदगी भी संकटग्रस्त बनी रहेगी।
बजट खर्च और पारदर्शिता का सवाल
हर साल बाढ़ (Flood) राहत पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं-नाव, मेडिकल टीम, भोजन, पुनर्वास। लेकिन क्या यह खर्च सही जगह हो रहा है? क्या इसका ऑडिट होता है? क्या जनता को बताया जाता है कि कितना खर्च हुआ और किस पर हुआ? पारदर्शिता की कमी से जनता का विश्वास टूटता है। बाढ़ प्रबंधन में वित्तीय जवाबदेही अनिवार्य है। यदि बजट का सही उपयोग हो, तो बाढ़ से पहले की तैयारी बेहतर हो सकती है। राहत के नाम पर खर्च करना आसान है, लेकिन उसका असर तभी होगा जब वह सही दिशा में हो।
स्थानीय प्रशासन की भूमिका
ग्राम पंचायत, नगर निगम और तहसील स्तर पर बाढ़ से पहले की तैयारी लगभग शून्य होती है। जल निकासी की सफाई, अतिक्रमण हटाना और चेतावनी प्रणाली लागू नहीं होती। स्थानीय प्रशासन को बाढ़ प्रबंधन में सक्रिय भूमिका निभानी होगी-सिर्फ राहत नहीं, रोकथाम भी। यदि स्थानीय स्तर पर ही बहाव क्षेत्र की निगरानी, निर्माण नियंत्रण और जन-जागरूकता अभियान चलाए जाएं, तो बाढ़ की तीव्रता को काफी हद तक कम किया जा सकता है। स्थानीय प्रशासन को केवल आदेश पालनकर्ता नहीं, बल्कि नीति निर्माता बनना होगा।
समाधान: जवाबदेही और नीति सुधार
बाढ़ (Flood) से बचाव के लिए प्रशासनिक जवाबदेही तय करनी होगी। नक्शा पास करने, निर्माण की अनुमति देने और फ्लडप्लेन की निगरानी करने वाले अधिकारियों को जवाब देना होगा। साथ ही नीति में दीर्घकालिक सोच, पारदर्शिता और जन भागीदारी को शामिल करना होगा। बाढ़ प्रबंधन को केवल राहत तक सीमित नहीं रखना चाहिए-उसे रोकथाम, पुनर्वास और पर्यावरणीय संतुलन से जोड़ना होगा। जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी, तब तक बाढ़ एक दोहराया जाने वाला संकट बनी रहेगी। समाधान की दिशा में पहला कदम है-नीति में ईमानदारी और जमीन से जुड़ी समझ।