Spiritual Guidance: मानव जीवन की चेतनता और आत्मा के स्वरूप पर शास्त्रीय दृष्टिकोण को लेकर एक महत्वपूर्ण विमर्श सामने आया है। शास्त्रों के अनुसार किसी भी वस्तु की चेतनता की पहचान इच्छा, क्रिया और अनुभूति से होती है। यदि इनमें से कोई भी गुण न हो तो वह वस्तु जड़ कहलाती है, जबकि इनका होना उसे चेतन बनाता है। मनुष्य में इन तीनों गुणों का होना ही उसे जीवित और चेतन सिद्ध करता है।
जब मनुष्य का शरीर मृत्यु को प्राप्त होता है, तो उसमें इच्छा, क्रिया और अनुभूति का अभाव हो जाता है। डॉक्टर इसे “प्राण न रहने” की स्थिति बताते हैं, जबकि शास्त्रीय भाषा में कहा जाता है कि आत्मा के चले जाने से शरीर अचेतन हो जाता है। आत्मा के रहते हुए ही मनुष्य चेतन कहलाता है।
शास्त्रों में आत्मा को सच्चिदानन्दमय बताया गया है। सच्चिदानन्द का अर्थ है सत् (नित्य जीवन), चित् (पूर्ण ज्ञान) और आनंद (नित्य सुख)। यही कारण है कि कोई मनुष्य मृत्यु नहीं चाहता, कोई अज्ञान में नहीं रहना चाहता और कोई भी दुःख नहीं चाहता। इन तीनों मूल इच्छाओं की पूर्ति केवल भगवान ही कर सकते हैं क्योंकि उनके पास नित्य जीवन, नित्य ज्ञान और नित्य आनंद असीम मात्रा में है।
प्रश्न उठता है कि भगवान कहां मिलेंगे? इस पर विभिन्न मत हैं-कण-कण में, मंदिर में, हृदय में, गुफा में या प्रकृति में। किंतु शास्त्रों में भगवान स्वयं कहते हैं कि वे वहीं रहते हैं जहां उनका शुद्ध भक्त होता है। इसलिए मनुष्य को ऐसे शुद्ध भक्त की खोज करनी चाहिए जो उसे भगवद्प्राप्ति का मार्ग दिखा सके।
स्कंद पुराण में भगवान शिव माता पार्वती से कहते हैं कि कलियुग में ऐसे गुरु बहुत मिलेंगे जो शिष्य का सब कुछ हर लेंगे, परंतु शिष्य का संताप हरकर उसे सद्मार्ग पर ले जाएं, ऐसे गुरु विरले ही होंगे। अतः सावधानी आवश्यक है कि ढोंगी गुरु के वेश में किसी के बहकावे में न आएं।
इस विमर्श का सार यही है कि चेतनता आत्मा से जुड़ी है और आत्मा का स्वरूप नित्य जीवन, नित्य ज्ञान और नित्य आनंद है। इनकी प्राप्ति केवल भगवान और उनके शुद्ध भक्तों के मार्गदर्शन से ही संभव है।
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