रूद्राक्षों का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। कितना विभिन्न संयोग है कि प्रत्याहारों की संख्या भी चौदह है। शिव के डमरू से चौदह प्रत्याहारों का अक्षर-समाम्नाय निकलता है। चौदहमुखी तक रूद्राक्ष और चौदह प्रत्याहार कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष अंतरसंबंध रखते हैं।
एकमुखी रूद्राक्ष साक्षात शिव स्वरूप है, इसके धारण करने से बड़े से बड़े पापों का नाश होता है। मनुष्य चिंतामुक्त और निर्भय हो जाता है, उसे किसी भी प्रकार की अन्य शक्ति और शत्रु से कोई कष्टभय नहीं होता।
एकमुखी रूद्राक्ष को जो धारण करता है और पूजन करता है, उसके यहां लक्ष्मी साक्षात निवास करती हैं, स्थिर हो जाती हैं। रूद्राक्षों में एकमुखी रूद्राक्ष सर्वश्रेष्ठ, शिव-स्वरूप सर्वकामना सिद्धि-फलदायक और मोक्षदाता है।
ज्योतिष दृष्टिकोण से इस रूद्राक्ष के धारण-पूजन से सूर्य जनित दोषों का निवारण हो जाता है। जन्म-कुण्डली में सूर्य की विभिन्न स्थितियां होती हैं। सूर्य प्रतिकूल-स्थानय होकर विभिन्न रोगों को जन्म देते हैं, जैसे नेत्र संबंधी रोग, सिरदर्द, हृदयरोग, हड्डी के रोग, त्वचा रोग, उदर संबंधी रोग, तेज बुखार, सरकार तथा उच्च अधिकारियों से विरोध। इन सभी दोषों के निवारण हेतु, रूद्राक्ष माला के मध्य में एकमुखी रूद्राक्ष को पिरोकर धारण करना चाहिए।
ज्योतिषीय दृष्टि से सूर्य दक्षिण-नेत्र, हृदय मस्तिष्क, अस्थि आदि का कारक है। यह ग्रह भगंदर, स्नायु रोग, अतिसार, अग्निमंदता रोगों का भी कारक बनता है। जब यह प्रतिकूल बन जाता है, तब यह विटामिन ए और विटामिन डी को भी संचालित करता है, जिसकी कमी से रात में न दिखाई देना, हड्डियों की कमजोरी जैसे रोग उत्पन्न होते हैं। इन सब के निवारण के लिये एकमुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिये।
सूर्यजनित दोषों के निवारण हेतु ज्योतिषी माणिक्य रत्न को धारण करने का परामर्श देते हैं, श्रेष्ठ पारदशी माणिक मूल्यवान होता है। साधन-संपन्न लोगों को भगवान शंकर की कृपा पाने के लिये एकमुखी रूद्राक्ष सदैव प्रयोग करना चाहिये। सिंंह राशि वालों को भी एकमुखी रूद्राक्ष अवश्य प्रयोग करना चाहिये।
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