Tuesday, May 21, 2024

हिटलर: स्टील के हेलमेटधारी जर्मन योद्धाओं के अनोखे कारनामों को लोग सदा याद करेंगे

हिटलर: वह 21 अक्टूबर 1914 का दिन था, जिस दिन हिटलर को युद्ध के लिये सीमा पर भेजा गया। सोलहवीं बवेरियन रिजर्व इन्फेंट्री रेजीमेंट की प्रथम कम्पनी की लिस्ट में उसका नाम था। प्रत्येक जर्मन की तरह उस समय इस पृथ्वी पर हिटलर के अविस्मरणीय एवं महत्वपूर्ण जीवन का प्रभात हुआ। 1914 में हुए उस महान संघर्ष, जिसे प्रथम विश्व युद्ध के नाम से जाना गया, इतिहास की ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं थीं, जिनको हिटलर के लिये मृत्यु-पर्यन्त भूल पाना संभव नहीं था। वह अभिमान और दुःख के साथ उन दिनों का ख्याल करके और उन गत सप्ताहों को याद करके उद्वेलित हो उठता, जिसमें उसे अपनी वीर जाति के साथ युद्ध करने का सुनहरा अवसर मिला।

इस युद्ध का प्रमुख कारण यूरोप में गुप्त संधियों का क्रम था। इस क्रम का आरंभ जर्मन साम्राज्य का चांसलर औटो फौन प्रथम बिस्मार्क था। 1870-71 में बिस्मार्क ने फ्रांस को पराजित व अपमानित करके जर्मनी को एक राज्य बनाया था। जिसके फलस्वरूप फ्रांस में प्रतिशोध की भावना का जन्म हुआ। फ्रांसीसियों से बचने और उनके प्रतिशोध के कोप का भाजन बनने से खुद को बचाने के लिये बिस्मार्क ने व्यवहारिक विदेश नीति का सहारा लिया। जिसके तहत फ्रांस को अलग रखकर जर्मनी के हितों में ज्यादा से ज्यादा मित्रता की गयी।

हिटलर को मन की मुराद मिल गयी थी, इसीलिये इस विश्व युद्ध के समय का उसका जीवन बहुत आनंददायी था। वैसे वह आस्ट्रिया का नागरिक था, मगर स्वभाव और विचार से वह खुद को जर्मन मानता था और उसे अपने जर्मन होने तथा कहलाने पर गर्व था।

हिटलर ने जवानों के साथ युद्ध क्षेत्र में पहुंचकर ऐतिहासिक जर्मन नदी के सामने राइन नदी को घेरे हए तथा वहाँ पड़ाव डाले अपने धूर्त तथा शक्तिशाली शत्रुओं को धोखा देते हुए पश्चिम दिशा की ओर चलना आरंभ किया। हिटलर के जीवन का यह पहला अवसर था, जब वह राइन नदी के दर्शन कर रहा था।

सुबह होने तथा धुंध के छंटने के बाद जैसे ही सूर्य देवता की पहली किरण ने अपनी आभा को चमकाया, वैसे ही हिटलर की टुकड़ी को नियादर वाल्ड प्रतिमा के दर्शन हुए। उसके बाद पूरी सैनिक टुकड़ी ‘डाईबैचिट एम रैडन’ की सीमा के अंदर आ गयी।

यह वह समय था जब हिटलर का मन हिलोरे ले रहा था। उसके हर बढ़ते कदम के साथ उसके शरीर में जोश और उत्साह का संचार होता जा रहा था। अपनी सैनिक टुकड़ी की सफलता और उसकी युद्ध सूझ-बूझ पर वह बहत ही खुश था।ठंडी और बर्फीली रात में उसकी सैनिक टुकड़ी फ्लैन्डर्स की ओर मार्च करती रही। सुबह का सूरज उगते ही गोलियों की बाढ़ ने उनकी टुकड़ी का स्वागत किया।

हिटलर के सैनिक साथियों ने गोलियों का जवाब गोली से दिया लेकिन उन्होंने आगे बढना बंद नहीं किया। अचानक एक गोला सैनिक टुकड़ी के बीच आकर फटा और चिंगारियाँ बरसाता हुआ धरती में समा गया। साथ ही भयानक विस्फोट भी गूंजा था, जिसका धुंआ चारों ओर फैल गया था।

विस्फोट का धुंआ अभी छंट भी नहीं पाया था कि दो सौ छुराह’ नामक ताेपों की भयानक गर्जना गूंजन लगी। फिर गोलियों की आवाजें, तोपों की गड़गड़ाहट और योद्धाओं के शोर-गुल से सारा वातावरण गूंज उठा। मगर सैनिक टुकड़ी ने अपना साहस नहीं खोया और लगातार अपने आगे बढ़ने का सिलसिला जारी रखा। यह सिलसिला तब तक जारी रहा, जब तक कि सैनिक टुकड़ी चुकंदर के खेत और चारागाह के निकट नहीं पहुंच गयी।

पूरे चार दिन और चार रातें उन्होंने खंदकों में गुजारी। इन चार दिनों में सैनिक टुकड़ी पर थकान हावी हो गयी थी। हालांकि रेजीमेंट में कुछ सैनिक साधारण सैनिक कला में भी प्रशिक्षित नहीं थे, फिर भी उनमें प्रशिक्षित सैनिकों के समान ही देश पर मर मिटने और प्राणों की आहुति देने का जज्बा था।

नौजवान स्वयंसेवक एक सिपाही हो चुका था। सारी सेना में इस प्रकार का परिर्वतन हो गया था। दूसरी ओर उस समय दुश्‍मन के हर ऐसे आदमी को मैदान से भागना पड़ रहा जो तूफान का सामना नहीं कर सकता था। उस समय दुश्‍मन की सेना के विचार को कोई भी समझा सकता था।

दो या तीन दिन के बाद एक के बाद एक दूसरी लड़ाई हो रही थी, बड़े-बड़े महान शत्रुओं और भयंकर शस्त्रों से टक्कर ली जा रही थी, भूख और तकलीफ का सामना किया जा रहा था। अब वह अवसर था, जब कि सेना के विचार और उसके चरित्र को समझा जा सकता था।

उस विश्व युद्ध में जर्मन की सेना ने जो बहादुरी और समर्पण की भावना दिखायी आने वाले हजारों सालों तक वह बहादुरी विश्व के सभी देशों के वीरों और योद्धाओं को प्रेरणा देती रहेगी। इतिहास के उस धुंधलके में स्टील के हेलमेट धारी जर्मन योद्धाओं के अनोखे कारनामों को लोग सदा आदर पूर्वक याद करेंगे और सिर पर कफन बांधे तथा जान हथेली पर रखकर अपने पूर्वजों की संतान होने के गर्व से जर्मन वासी आजीवन फूले नहीं समायेंगे।

उस समय हिटलर को राजनीति से जरा भी रुचि नहीं रह गयी थी। उस समय यदि कोई चीज उसकी दृष्टि का केन्द्र थी तो वो बस सिपाही और उसका जीवन। यही कारण था कि इतनी व्यवस्था के बीच भी वह सिपाहियों से संबंध‍ित कुछ निश्चित मतों को प्रकाशित किये बिना नहीं रह सका।

मार्क्‍सवाद से हिटलर को पहले से ही नफरत थी। मार्क्सवाद के सोचे हुए तरीकों को देखकर उसे क्रोध आता था। उसका उद्देश्य सभी यहूदी राष्ट्रों का अन्त करना था। वर्षों तक चलने वाले रोमांचक युद्ध के उत्साह ने कुछ सैनिकों को हताशा से भर दिया। सैनिकों का जोश धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगा और साथ ही उन्हें मौत का डर सताने लगा।

ऐसे समय हिटलर ने यह भी देखा कि किसी अज्ञात शक्ति ने कमजोर दिलों में विद्रोह की भावना को जन्म दिया। तब सबने निश्चय किया कि यदि मरना ही है तो क्यों न दुश्मन को मार कर मरा जाये। इस भावना के जन्म लेते ही उनका विरोध दृढ़ हो गया और वीरता की भावना की विजय हुई।

लिस्ट रेजीमेंट को 1915 में न्यूक चेपेला भेजा गया, इस मैदान पर उन्‍हें पूर्व की भांति ब्रिटिश सेना से युद्ध करना था। 1916 में हिटलर की रेजीमेंट सोजा व बामांग में ब्रिटिश सेना के विरुद्ध मैदान में उतरी। हिटलर ने अपनी आत्मकथा में उस समय का विवरण कुछ इस प्रकार किया है-

“1915-16 की शरद ऋतु में मैं आन्तरिक संघर्ष से निश्चिन्त हुआ, सबसे पहले मैं हंसी-मजाक के रूप में आक्रमण किया करता था, परन्तु अब में शान्त और दृढ़ प्रतिज्ञ हो चुका था। अंत तक परीक्षा के संकट से घिरे रहने के बाबजूद मेरे पांव नहीं डगमगाये। अब मैं युवा स्वयंसेवक के बदले पुराना सिपाही बन चुका था। जिस तरह से मुझ में परिवर्तन आया, उसी तरह से अन्य सैनिकों में बदलाव आया था। लगातार चलने वाले युद्ध ने सैनिकों को निर्भीक और साहसी होने के साथ-साथ अनुभवी भी बना दिया था। यहाँ तक कि वह किसी भी आक्रमण के विरुद्ध निर्भीक होकर डटे रहने के अभ्यस्त हो चुके थे। उन्हें केवल आदेश की प्रतीक्षा रहती थी। इस प्रकार दो-तीन वर्षों तक चलते युद्ध में अनेक हथियारों का सामना करने तथा भूख प्यास की असंख्य पीड़ाओं को सहने के बाद वह साहसी, निर्भीक और कष्ट सहिष्णु बन गये थे।”

सामाजिक प्रजातन्त्र के विरुद्ध 1914 की यह लड़ाई वास्तव में विचारणीय थी। किन्तु अन्य किसी क्रियात्मक प्रणाली के अभाव ने इस बात का भ्रम फैला दिया कि कब तक ऐसी लड़ाई सफतापूर्वक चल सकती है! यह भारी खोखला मत था।हिटलर की विश्व युद्ध से पहले भी यह सम्मति थी, और यही कारण था कि उसने तत्कालीन किसी भी दल में सक्रिय भाग नहीं लिया था।

विश्व युद्ध के प्रारंभ काल से ही, प्रत्यक्ष असंभवता को देखकर हिटलर के विचार और भी दृढ़ हो गये। इसका कारण यह था कि एक ऐसे आंदोलन की कमी थी जो कि पार्लियामेन्टरी पार्टी की अपेक्षा सामाजिक प्रजातंंत्र-वाद का भली भांति निर्वहन कर सके।

हिटलर ने अपनी मित्र मंडली में इस विषय पर निर्भीकता से चर्चा की। मित्रों से चर्चा करने पर जो तस्वीर उभर कर आयी, उससे हिटलर के मन में राजनीतिज्ञ बनने का विचार उभर आया। यही कारण था कि वह अपने मित्रों को इस बात का विश्वास दिला सकता था कि युद्ध के बाद से उसका प्रमुख लक्ष्य काम-काज की जगह चुनावों में सक्रिय भाग लेना होगा।

पहले जब हिटलर अपने इस निर्णय पर विचार करता था तो उसे लगता था जैसे यह एक खतरनाक बात थी। किन्तु जब उसने इस विषय पर गंभीरता से विचार किया तो वह समझ गया कि उसका फैसला गलत नहीं है।

1916 के अन्त में हिटलर की डिवीजन को सोने के युद्ध में भेजा गया। यह पहला अवसर था जब हिटलर को युद्ध-भूमि एक नरक के समान लगी। हिटलर और उसकी डिवीजन ने हार ना मानते हुए, मोर्चे को संभाले रखा और गोलियों व तोपों का बहादुरी के साथ सामना किया।

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