स्वदेशी और बहिष्कार तिलक के चिंतन के अनुसार और तिलक द्वारा अपनाए गए दो सबसे अधिक महत्वपूर्ण साधन थे। तिलक ने ‘केसरी’ में लिखा, “हमारा राष्ट्र एक वृक्ष की तरह है जिसका मूल तना स्वराज्य है और स्वदेशी तथा बहिष्कार उसकी शाखाएं हैं। “उदारवादी ‘स्वदेशी’ उचित है, किंतु बहिष्कार को अपनाने का कोई औचित्य नहीं है। लेकिन तिलक और अन्य उग्रवादियों ने इसे एक आर्थिक आंदोलन के साथ-साथ राजनीतिक शस्त्र के रूप में अपनाया था।
तिलक का विचार था, जब आप स्वदेशी को स्वीकार करते हैं तो आपको विदेशी का बहिष्कार करना होगा। तिलक के लिए बहिष्कार स्वदेशी के विचार का पूरक था। यह स्वदेशी का आंदोलनात्मक पक्ष तथा उसके साथ जुड़ी हुई स्वाभाविक स्थिति थी। तिलक वास्तव में बहिष्कार को ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध भारतीयों के रोष की अभव्यक्ति का प्रभावशाली माध्यम समझते थे।
तिलक ने स्वदेशी और बहिष्कार का केवल नारा ही नहीं दिया वरन् स्वदेशी का प्रयोग और विदेशी के बहिष्कार का संदेश पश्चिमी भारत के प्रत्येक कस्बों और प्रत्येक गांव तक पहुंचाकर इसके एक जन आंदोलन का रूप दे दिया।
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