Friday, May 10, 2024

ह‍िटलर: जब तक कोई व्‍यक्‍त‍ि पूरी आजादी से विचार नहीं करेगा, तथ्‍यों का निष्पक्ष होकर परीक्षण नहीं कर पाएगा

हिटलर को यहूदियों से सख्त नफरत थी। यह एक सार्वभौतिक सत्य है और इसका प्रमुख कारण यही था कि वह जर्मनों पर हो रहे अत्याचारों की मुख्‍य वजह यहूदियों को समझता था। यहूदी जर्मनों को गिरी नजरों से देखते थे और उन्हें चोट पहुँचाने के किसी अवसर से न चूकते थे। फिर वियाना में यहूदियों की संख्या इतनी अधिक थी कि जर्मनों को रहने के लिये वहाँ स्लम बस्तियों ही बचती थीं। जबकि यहूदी लोग शहर में रहते थे और हर प्रकार की सुख-सुविधा से सम्पन्न थे। गरीब जर्मन गंदी बस्तियों में रहने के लिये विवश थे।

वियाना में रहते हुए हिटलर ने देखा था कि अधिकांश उच्च पदों पर यहूदियों का कब्जा था। जबकि जर्मन के लोगों को कुछ ही पद मिल पाता था। यहूदियों का व्यापार, सरकार, राजनीति और प्रेस सभी स्थानों पर एकछत्र आधिकार था और यही लोग जर्मन मजदूर वर्ग को राष्ट्रीयता से अलग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे।

अडोल्फ हिटलर के मन में इन यहूदियों को जड़ से उखाड़ फेंकने का जज्बा दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। क्योंकि वह इन यहूदियों को ही जर्मन के पतन का कारण समझता था और यह सोचता था कि जब तक जर्मन से यहूदियों को समूल नष्ट नहीं किया जायेगा, तब तक जर्मन राष्ट्र का उत्थान करना असम्भव

हिटलर को यहूदियों से चिढ़ इसलिये भी थी कि उन्होंने जो समाजवादी ढांचा खड़ा किया था, वह जर्मन वासियों के लिये घातक सिद्ध हो रहा था। यही कारण है कि उसने मन ही मन योजना बनायी कि जर्मन राष्ट्रवादियों को एकजुट करके आंदोलन चला कर, सत्ता को राष्ट्रवादियों के हाथ में सौंपनी चाहिये।

हिटलर ने अपनी इस योजना को कार्यान्वित करने के लिये मन ही मन दृढ़ निश्चय किया। एक ओर यहूदी जाति थी, तो दूसरी ओर पाश्चात्य देशों में लोकतन्त्र को बढ़ावा दिया जा रहा था। उन लोगों की विवशता यही थी कि वो राजतन्त्र और तानाशाही से ऊब चुके थे। मगर अडोल्फ हिटलर को प्रजातन्त्र जरा भी पसंद नहीं था, उसे उसके नाम से घृणा थी।

इधर पश्चिम में मार्क्सवाद तेजी से पनप रहा था और ऊंचाइयाँ छूने को बेताब था। मजदूर वर्ग शासन पर अधिकार करने के सपने बुन रहा था। इसके लिये दुनिया भर के मजदूरों ने एकता करने की ठान ली थी, ताकि मार्क्सवाद के रास्ते को प्रशस्त किया जा सके। हिटलर ने संसद के अधिवेशनों में जाकर यह बात समझ ली थी कि गोरों की राजनीति व बहुमत के लिये किस प्रकार से सौदेबाजी होती है। ये ही वे प्रवृत्तियाँ थीं जिन्होंने जर्मन साम्राज्यवाद को कमजोर कर दिया था।

हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मेरा संघर्ष’ में इस विषय में कहा है, संसदीय शासन पद्धति व्यक्तिगत सत्ता के स्थान पर बहुमत के निर्णय के अधीन कर देती है। इससे कुलीनता का महत्व समाप्त हो जाता है। मेरे विचार से यह कुलीनता के इस विचार को नकारना है, जो कि मानव समुदाय को प्रकति की महत्वपूर्ण एवं अनुपम देन है। यह समझना मात्र बेवकूफी होगी कि कलीनों की संख्या केवल ऊपर के दस-बीस हजार लोगों तक ही सीमित है।

जो लाेग यहूदी प्रेस से निकलने वाला पत्र-पत्रिका को पढ़ते हैं, वो इस संसदीय संस्था के तबाहकुन प्रभाव को आसानी से नहीं समझ सकेंगे। जब तक कोई भी आदमी पूरी आजादी से विचार नहीं करेगा और तथ्‍यों का निष्पक्ष होकर परीक्षण नहीं करेगा, तब तक उसके लिये किसी संस्‍था की वास्तविकता को समझना आसान नहीं होगा। इस संस्था के कारण राजनीति में साधारण सोच वाले व्यक्ति का तांता सा लग गया है। इस अवस्था में जो व्यक्ति नेतत्व क्षमता से सम्पन्न होता है, वह राजनीतिक जीवन से समझौता न करने के कारण उससे दूर होता चला जाता है। क्योंकि शासन पद्धति में अपने समर्थन में बहुमत जुटा सकने वाला इसके लिये सौदेबाजी करके अधिक से अधिक व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले व्यक्ति को सर्वाधिक सफल नेता माना जाता है।

ऐसा व्यक्ति जो रचना शक्ति तथा नेतृत्व गुणों से सम्पन्न न हो, उसकी इस शासन पद्धति में कोई उपयोगिता नहीं रह जाती है; क्योंकि ऐसा व्यक्ति भीड़ में अकेला होता है। वह अपने राजनैतिक दृष्टिकोण से कोई समझौता नहीं करता है। हाँ, जो छुटभैया नेता होते हैं, जिनका कोई मान नहीं होता, वह किसी भी दल में शामिल होकर अपने को महत्वपूर्ण पद का अधिकारी बना लेते हैं। यहाँ इस मत का पक्ष लेने वाले कायर होते हैं। लोकतंंत्र प्रणाली, देशवास‍ियों को परस्पर लड़ाकर उस देश को कमजोर बनाने वाली प्रणाली है। मार्क्सवाद यहूदियों की देन थी और हिटलर को मार्क्‍सवादी विचारधारा से सख्‍त नफरत थी।

मार्क्‍सवाद और लोकतंंत्र की आड़ लेकर यहूदी जर्मन साम्राज्य का सफाया कर अपना साम्राज्य स्थापित करने का षड्यन्त्र रच रहे थे। हिटलर उनकी मनोवृत्ति को अच्छी तरह से समझता था। गरीबों का मसीहा कार्ल मार्क्स था और देश में गरीबों की संख्या भी अधिक थी। गरीबों को यह कहकर बहकाया जा रहा था कि मार्क्‍सवाद ही गरीबों को ऊँचा उठाने का एक मात्र माध्यम है। जर्मन राजतन्त्र के विरुद्ध षड्यन्त्र करके लोगों को भड़काया जा रहा था।

हिटलर ने जर्मन राष्ट्र को उभारने के लिये पहले उसके हर पहलू पर विचार किया और फिर उसकी नीति को अपनाने का निर्णय लिया। इस बीच हिटलर इस निर्णय पर पहुंच चुका था कि देश समर्पित लोगों के हाथों में ही सुरक्षित रह सकता है और उसके लिये उसे न केवल प्रयत्न करने होंगे, बल्कि उसे इस दिशा में आगे होकर अपने आप को देश के लिये समर्पित करना होगा। हिटलर को आस्ट्रियन राज्य के दूषित प्रभाव राष्ट्रीय संस्कृति व एकता से सम्बन्धित हर क्षेत्र में दृष्टिगोचर हो रहे थे, जोकि जर्मन राष्ट्र के लिये बहुत खतरे वाली बात थी।

हिटलर को इस बात का पक्का विश्वास था कि यदि जर्मन राष्ट्र को आने वाले सम्भावित खतरों से बचाना है और अपनी आजादी का बिगल बजाना तो आस्टियन राज्य का पतन करना ही होगा; और यही वह समय होगा जबकि जर्मन राष्ट्र के लिये मुक्ति की घड़ी होगी। इससे यह बात पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है कि हिटलर के मन में जर्मन राष्ट्र के लिये कितना सम्‍मान था।

 

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