Saturday, May 11, 2024

हिटलर: आंदोलन करने से पूर्व प्रत‍िनिध‍ियों का वक्‍तव्‍य समझना जरूरी

ह‍िटलर का आंदोलन: 1870-71 में हुए महान युद्ध के बाद हाउस ऑफ हैब्जबर्ग ने अपने पूरे विश्वास के साथ पथक जर्मन जाति को धीरे-धीरे लेकिन योजनाबद्ध तरीके से ‘प्रभावहीन करना आरंभ कर दिया था। प्रभावहीन इसलिये क्योंकि यह स्लावोफ्राइल नीति के अन्तिम परिणामों को समझा सकता है। जिन लोगों को निर्मूल किया जा रहा था, उन्होंने देश में विद्रोह की आग को भड़का दिया और यह आग इतनी विकराल थी कि उसके सामने जर्मनी के इतिहास में सुलगने वाली सारी ज्वाला मंद पड़ गयी।

पहली बार राष्ट्रवादी देशभक्तों ने विद्रोह किया था और यह विद्रोह न किसी राज्य के विरुद्ध था और न ही किसी राष्ट्र के खिलाफ! यह विद्रोह उन नीतियों के विरुद्ध था, जो कि उन पर लागू  की जा रही थीं। पहली बार आधुनिक इतिहास ने दो पक्षों की रचना की-एक तरफ परम्परावादी देशभक्त थे, तो दूसरी ओर राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत अपनी जन्मभूमि के प्रेमी।

विगत शताब्दी के अन्तिम दशक में आस्ट्रिया में पैन यानि आंदोलन के लिये यह बात लाभकारी थी। उसने स्पष्ट तथा विश्वसनीय रूप से संकेत किया कि एक राष्ट्र अपने सम्मान व सत्ता की सुरक्षा का तभी हकदार बन सकता है। जब वह राष्ट्रहितों के लिये सत्ता का प्रयोग करे अथवा ऐसा न करने का संकल्प ले जिससे राष्ट्रहितों को कोई नुकसान पहुंचता हो।

राज्य की सत्ता अपने आप में अंत‍िम सच नहीं होती है। यदि ऐसा मान लिया जाता तो हर प्रकार के अत्याचार और अन्याय भाग्य की परिधि में आ जाते, जो कि एक असत्य बात है, यदि उपलब्ध शक्ति के साधनों का प्रयोग कोई की सरकार जनता के विनाश के लिये करती है तो प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य बनता है कि वह उसका विरोध करे।

यह भी एक कटु सत्य है कि कोई सरकार भले ही कितनी आलसी और निकम्मी हो तथा उसने राष्ट्र के साथ भले ही हजारों बार विश्वासघात ही क्यों न किया हो-किन्तु वह यही दावा करती है कि वह राज्य की सत्ता को बनाये रखने को अपना धर्म मानती है। ऐसे शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय गौरव हेतु लड़ रहे विरोधियों को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्हीं साधनों को प्रयोग में लाना चाहिये, जिन्हें सबसे पहले सरकार प्रयोग करती आ रही थी।

राज्य अधिकारों से भी अधिक महत्वपूर्ण उसका मानव अधिकार का है। अगर मानव अधिकार के लिये चलाये गये अभियान में जनता की शिरकत होती है तो उसका साफ-सा मतलब यह है कि उसका दुनिया में रहना ही बेकार है। उन जातियों को अपने अस्तित्व को बनाये रखना कठिन है, जिनका मनोबल टूट गया हो। इसका सजीव, स्पष्ट तथा आश्चर्यजनक उदाहरण आस्ट्रिया है कि किस तरह से अत्याचार खुद को कानूनी पर्दे में छिपाकर स्वयं को बचाने में सफल हो जाता है।

कानून क्या है? और कानून को बनाता कौन है? कानून मानव द्वारा बनाया गया एक संविधान है, जिसके तहत वह अपने देश का राष्ट्र का निर्माण करता । जब कोई कानून लागू हो जाता है तो मनुष्यों का कर्त्तव्य बन जाता है कि वह उसका पालन करें। इसी सारी बकवास को बेबुनियाद साबित कर देना पैन जर्मन आंदोलन की सबसे बड़ी देन थी। हालांकि इससे धर्माचार्यों व सिद्धान्तवादियों को करारा झटका लगा।

पैन जर्मन पार्टी ने हैब्जबर्ग के विरुद्ध खासा मोर्चा तब लिया जब वह उपलब्‍ध साधनों प्रयोग करते हए आक्रामक ढंग से जर्मन जाति के निकट आने का प्रयास कर रहा था। राज्य में फैले भ्रष्टाचार को खोलकर उसका रहस्‍योदघाटन करने वाली यह पहली पार्टी थी। उसके कायों ने सभी की आंखों से पर्दे हटा दिये थे।

पैन जर्मन आन्दोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यही थी कि इसने दलित वर्ग को न केवल गले से लगाया, बल्कि उसने देश-भक्ति जैसे उच्‍च आदर्श की भावना का भी समावेश किया। यह दल जब पहली बार उभर कर आया तो, उसके बहुत सारे समर्थक हो गये। आरंभ में इस आंदोलन के देश भर में फैल जाने की पूरी आशंका थी। किन्‍तु दुर्भाग्‍य से उसकी प्रारंभिक सफलताओं को संभाला नहीं जा सका। आंदोलन के वियाना प्रवास के आरंभिक दौर में ही क्रिश्चियन सोशलिस्‍ट पार्टी इस आंदोलन को प्रभावहीन कर सत्‍ता में आ गयी थी।

पैन जर्मन पार्टी का विस्तार नहीं हो सका। इसके उत्‍थान व पतन के साथ-साथ क्रिश्चियन सोशलिस्‍ट पार्टी की चकित कर देने वाली प्रगति- ये सभी एडोल्‍फ हिटलर के अध्‍ययन की प्रिय सामग्रियां थीं। आगे चलकर ये विषय उसके विचारों के विकास में अत्यधिक मददगार साबित हुए।

एडोल्फ जब वियाना में आया तो उसकी पूरी हमदर्दी पैन जर्मन आंदोलन के साथ थी। वह इस बात से बहुत प्रभावित हुआ था कि उनमें  “हैल हो अनजोर्लन” का नारा लगाने का साहस व जज्‍बा था। साथ ही वे खुद को जर्मन साम्राज्‍य का अखंडित हिस्‍सा मानते थे। उनके इस फैसले से हिटलर का बहुत खुशी मिली, जबकि अस्थायी रूप से वे उससे अलग हो गये थे।

यह बात हिटलर को बड़ी अजीब लगी कि यह संघर्ष इतनी जल्दी कैसे समाप्त हो गया ? जबकि इसका आरंभ योजनाबद्ध तरीके से हुआ था। इसके अलावा एक बात और हिटलर को हैरान कर रही थी-कि आखिर इतने थोड़े समय में क्रिश्चियन सोशलिस्ट पार्टी इतनी शक्तिशाली कैसे हो गयी ? उसने लोकप्रियता के चरमोत्कर्ष को छू लिया था।

हिटलर ने जब इन दोनों आंदोलनों की तुलना की, तो ईश्वर ने इस उलझी हई गुत्थी के कारणों को स्पष्ट करने के उसको उत्तम साधन प्रदान किये। उसके जीवन की विपरीत परिस्थितियों में भी उसके भाग्य ने उसका बहुत साथ दिया। हिटलर ने अपने अध्ययन का विश्लेषण करते समय पाया कि इन दोनों आंदोलनों के संस्थापक-संचालक कहे जाने वाले दो महान आदमी थे। इनमें से एक का नाम शोजरर तथा दूसरे का नाम कर्ल लिउजर था।

हिटलर ने जब इन दोनों महापुरुषों की निजी योग्यताओं का विश्लेषण किया तो उसने पाया कि लिउजर से ज्यादा शोजरर मूल समस्याओं के प्रति अति गम्भीर तथा उपयुक्त चिंतक थे। शोजरर को समस्याओं की वास्तविक गहराइयों में उतरने में तो सफलता मिल गयी, मगर वह लोगों को समझने और उन्हें समझाने में मात खा गये। शोजरर का यही दोष लिउजर का गुण था। उसमें मानव स्वभाव को परखने की अदभुत क्षमता तो थी ही, साथ ही वह इस विषय के प्रति भी काफी सजग थे कि किस आदमी को कितना महत्व दिया जाये। उनकी योजनाएं मानवीय व्यावहारिक संभावनाओं पर आधारित थीं। इसके विपरीत, शोजरर इस क्षेत्र में काफी पिछड़े हुए थे। पैन जर्मन आंदोलन के सभी विचार सैद्धान्तिक आदर्श थे। मगर उनमें अपने विचारों को विस्तृत जनसमूह तक पहुंचाने की अनिवार्य बुद्धिमत्ता का अभाव था उन्‍हें वे ऐसा क्रमबद्ध रूप नहीं दे सके थे, जिसमें लोग उन्‍हें सरलता से ग्रहण कर लें। उन्‍होंने कभी यह नहीं सोचा कि जनता सामान्‍य बुद्धि वाली होती है। इसी कारण शोजरर का संपूर्ण ज्ञान अवतरित बुद्धिमता के सदश्‍य सिद्ध हुआ, जिसे वे व्‍यवाहारिक रूप नहीं दे सके।

शोजरर ने यह तो महसूस कर लिया था कि जिन समस्याओं के साथ उन्‍हें संघर्ष करना है, वे वैलटन शुआंग के रूप में थी। किन्तु उन्होंने यह नहीं समझा कि राष्ट्र की केवल विशाल जनता ही धार्मिक स्वरूप की धारणा को मनवा सकती है। दुर्भाग्यवश उनसे बुर्जुआ वर्ग की युद्धोत्साहित भावना को कमजोर समझने की गलती हो गयी थी। उन्हें यह पता ही नहीं चला कि दृष्टिगोचर होने वाली बर्जुआ वर्ग की दुर्बलता उनके व्यवहारिक हितों की वजह से है।

डाॅक्टर लिउजर निःसंदेह एक योग्य राजनीतिज्ञ थे। उनमें राजनीतिक बनने के आवश्यक गुण तथा एक महान सुधारक की सच्ची प्रतिभा भी थी, मगर उनकी सूझबूझ व सामर्थ्य उनके जीवन-काल तक ही पार्टी को लाभान्वित करती रही। इस महापुरुष द्वारा निर्धारित मानक वास्तव में एकदम व्यवहारिक थे। वे वियाना को राजतन्त्र की स्थापना के लिये विजय करना चाहते थे। जबकि उन दिनों वियाना एक कमजोर और बीमार आदमी की तरह आखिरी सांसें ले रहा था।

डाॅक्टर लिउजर ने राजतंत्र को बचाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन वह सफल न हो सके। उसकी असफलता का एक कारण यह भी था कि वह बचाव के लिये काफी देर बाद में आये। फिर भी वियाना सिटी के बर्गो मास्टर के रूप में उनकी उपलब्धियां वास्तव में अतुलनीय हैं। डॉक्टर लिउजर के विपक्षी शोजरर ने इसे ज्यादा व्यापक रूप देना चाहा-जिससे निर्धारित उद्देश्यों की तो क्या प्रगति होगी, उल्टे उनके सामने अपनी विफलताओं का बड़ा ही भयानक रूप उपस्थित हुआ।

इस प्रकार इन दोनों ही महापुरुषों में से कोई भी अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर सका। शोजरर आस्ट्रिया में जर्मनों के पतन को रोकने में असफल रहे और डाक्‍टर लिउजर आस्ट्रिया पतन को नहीं रोक सके। वियाना में रहते हुए एडोल्‍फ हिटलर ने काफी समय तक इस समस्‍या का निर्विघ्न अध्ययन किया। इस संबंध में हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मैन कॉफ’ में लिखा है-

जो गलतियां इन दोनों महापुरुषों ने की, वह नवयुवकों के लिये प्रेरणास्रोत है। मेरा मानना है कि यह शिक्षा हमारे लिये लाभदायक सिद्ध होगी। क्योंकि उस समय की और आज की परिस्थितियों में कोई विशेष अंतर नहीं है मेरे विचार से आस्ट्रिया पैन जर्मन आंदोलन की असफलता के तीन प्रमुख कारण थे-

  • तब नेताओं को सामाजिक समस्या के महत्‍व की ठीक जानकारी नहीं थी। खासतौर क्रान्तिकारी स्वरूप वाले एक नये आंदोलन के महत्त्व की शोजरर और डाॅक्टर लाउजर ने  जन-साधारण की अपेक्षा बुर्जुआ वर्गों की आर ध्यान दिया। परिणामस्वरूप उनका आंदोलन असफल रहा। यह एक प्रमाणित सत्य है कि समाज के उच्‍च गर्वों में किसी ठोस संघर्ष को चलाने की मनोवत्ति नहीं होती। जिस कारण उच्च वर्ग का कोई भी आंदोलन साधारण मूल प्रेरणा में सफल नहीं होता। यही परिणाम पैन जर्मन आंदोलन का भी हुआ।आंदोलन में एक और कमी थी। इसमें जनशक्ति ने अपनी शक्ति को नहीं दिखाया। जिस कारण यह आंदोलन आरम्भ से ही कमजोर पड़ गया। नई पार्टी ने भी आंदोलन के शुरुआत में इसी गलती को दोहराया, जिसको बाद में सुधारना नामुमकिन हो गया। धार्मिक उन्माद तथा बलिदान की भावना के स्थान पर सकारात्मक सहयोग की प्रवृत्ति न होना भी इस आन्दोलन की एक कमी थी। इसका नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे विवादग्रस्त प्रश्नों से ध्यान हटता चला गया और शर्मनाक ताकतों की स्थापना हो गयी।
  • पैन जर्मन आन्दोलन के नाकाम होने की दूसरी वजह यह थी कि नेताओं द्वारा लोगों के विस्तृत जनसमूह में से किसी को भी पार्टी में शामिल कर लेना, जबकि आस्ट्रिया निवासी जर्मनों की हालत ठीक नहीं थी। संसद का उपयोग जर्मन आस्ट्रियन जनसंख्या को नष्ट करने में किया जाना था। इसलिये आन्दोलन का मुख्य उदेश्य उस संसदीय पद्धति को उखाड़ फेंकना था। मगर इसकी सफलता की सम्भावना बहुत कम थी। इसके अलावा पैन जर्मन आन्दोलन में आन्दोलनकारियों के सामने एक गम्भीर प्रश्न यह आकर खड़ा हो गया कि उन्हें संसद का विनाश उसमें प्रवेश करके करना चाहिए या फिर बाहर रह कर इसको नेस्तानाबूद करना ठीक होगा। आंदोलनों के प्रमुखों ने सबसे पहले संसद में प्रवेश किया, मगर उनकी योजना सफल न हो सकी और वे संसद से बाहर हो गये।
  • इसकी असफलता का तीसरा कारण पैन जर्मन आंदोलन के नेताओं के पास युवा वर्ग का अभाव होना था। यह अभाव ही था, जिस कारण उन्होंने संसद में प्रवेश कर उसकी नष्‍ट करने का दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय लिया। वे ये सोच नहीं पाये कि जिस संस्था की वे आज तक आलोचना करते आ रहे हैं, आज वे किस तरह उसका अंग बनने जा रहे हैं। उनका विचार था कि ऐसा करके वे अपने उद्देश्यों का जन साधारण तक पहुंचा सकेंगे तथा उन्हें राष्ट्र के नताओं के सामने बोलने का अधिकार मिल जायेगा। उनका मानना था कि बुराई पर बाहर से चोट न करके उसे भीतर से चोट देना ज्यादा प्रभावी रहेगा। वह संसद के रूप में प्रतिष्ठित बनकर अपने वक्तव्यों को प्रभावी रूप देना चाहते थे। किंतु इसका नतीजा आशा के विपरीत रहा। संसद में शामिल होने पर उनका व्यक्तित्व विकसित होने की बजाय घटने लगा। वे संसद को अपना प्लेटफार्म न बना सके। क्योंकि संसद सदस्यों की संख्या एक सौ तक सीमित होती है। दूसरी बात यह कि उनमें से कुछ सदस्‍य केवल अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर खिसक जाते है। तीसरी बात ये कि कुछ सदस्‍य जानना समझना जरूरा नहीं समझते. शेष सदस्‍य भी उदासीन होते हैं।

इसके अलावा संसदीय सदस्य हमेशा एक सा रहते थे। कुछ नया करने या नया जानने की जिज्ञासा का उनमें नितान्त अभाव होता है। उनके पास सीखने योग्य अपेक्षित इच्छाशक्ति का भी अभाव होता है। सदस्यों की इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। यदि किसी को उक्त बातों के विपरीत कर वह पुनः निर्वाचन आया हो तो बात दूसरी है।

जब किसी को यह लगता है कि आगामी चुनाव में पुराने दल के जीतने की कोई आशा नहीं है तो साहसी लोग दूसरी पार्टी या नीति की खोज करते हैं। ताकि बेहतर चुनाव परिणाम की सम्भावनाएं बन सकें। बाद में इस स्थिति परिवर्तन को भौतिक प्रयोजनों द्वारा उचित व उच्च बनाने की चेष्टा की जाती है। जबकि वह हकीकत में एक तरह से पलायन है; किन्तु ऐसा हमेशा नहीं होता।

आगामी चुनावों में किसी पार्टी को जनमत न मिले तो उसकी हार निश्चित है। तब अवसरवादी सांसद उस पार्टी को बीच में छोड़ कर नई पार्टी का गठन करते हैं। मगर इसका कारण यह नहीं होता कि पार्टी के सिद्धान्तों के अनुरूप आचरण करने की तय कर ली है, या उन्हें उपस्थित विषय के सम्बन्ध में सच्चाई का पता चल गया है। जबकि दल बदलना तो सत्ता प्राप्त करने की उस अभीष्ट इच्‍छा का  फल होता है जो उन्हें कुत्ते की भांति दर-दर भटकने और सुबकने को मजबूर कर देती है।

कोई भी आंदोलन आने वाली पीढ़ी के सुख और विकास के लिये होता है। कोई भी आंदोलन करने से पहले प्रतिनिधियों को उक्त वक्तव्य को समझ लेना चाहिए। आन्दोलन में यदि वर्तमान पीढ़ी कुछ फल की इच्छा से शामिल होती है तो उसके हाथ केवल निराशा ही लगती है।

पैन जर्मन प्रतिनिधियों के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह पैन जर्मन पार्टी के प्रतिनिधि बन कर संसद में तो पहुंच गये, मगर उनका ध्‍यान आन्दोलन की ओर से हट गया। परिणामस्वरूप उनमें विपरीत परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति और बलिदान की भावना क्षीण होती चली गयी, रही-सही कसर प्रेस ने  पूरी कर दी। उसने पैन जर्मन नेताओं के कार्यों की सही जानकारियों को नहीं छापा; जिस कारण जनता उन्‍हें गलत और धोखेबाज समझने लगी। उधर ये प्रतिनिधि जनसभाओं आदि से कतराने लगे, जो कि लोगों पर प्रभाव डालने का एकमात्र उत्तम साधन था।

सच्चाई तो यह है कि जनसाधारण से व्यक्तिगत सम्पर्क करके उनकी सहानुभूति और समर्थन प्राप्‍त किया जा सकता है। लेकिन पैन जर्मन आन्दोलनकारी यहां भी फिसड्डी साबित हुए। उन्होंने न तो प्रेस द्वारा फैलाई जा रही गलत बातों का खंडन किया और न ही लोगों से सम्पर्क साधने के लिये सार्वजनिक सभाओं का आयोजन किया और न ही अपनी गतिविधियों की जानकारी जन-जन तक पहुंचाने की चिन्ता की। इन सब गलतियों का बुरा फल यह हुआ कि पैन जर्मन शब्‍द से लोग घृणा करने लगे। जबकि जनता के बहुत बड़े भाग को किसी भी अन्य साधन की अपेक्षा भाषण द्वारा शीघ्र पभावित किया जा सकता था। भाषणों द्वारा ही लोगों में देश‍ भक्ति का संचार होना संभव था।

किसी भी आंदोलन की सफलता का रहस्य है कि उसके प्रतिनिधि लगातार जन सम्पर्क में रहे। जनता को ही अपनी शक्ति मानकर उनके निर्णय द्वारा ही प्रस्तुत समस्या की समीक्षा की जाये। पैन जर्मन नेतामों ने जन सम्पति की उपेक्षा कर संसद में स्थान पाने को ज्यादा महत्‍व दिया और उन्होंने वह स्थान पा भी लिया। ऐसा करके उन्होंने अपने आन्दोलन के भविष्य का बलिदान तो दिया ही, साथ ही पंगु बनाकर अपने विषय को पराजय में बदल दिया।

कोई भी सिद्धान्त कितना भी उच्‍च तथा महान क्यों न हो, जनता का समर्थन प्राप्त किये बिना उसे व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। यह एक सर्वमान्य एवं लोकसिद्ध सत्य है। अतः आंदोलनकारियों को चाहिये कि जन समर्थन को क्षीण व दुर्बल बनाने वाली सभी परिस्थितियों से बचना चाहिये। यदि नेता जाने-अन्जाने उद्देश्यों से विरत हो जाये तो जनता साथ नहीं चलती।

शोजरर का मानना था कि सारी बुराई इस सच्चाई में छिपी है कि कैथोलिक चर्च जर्मनी में नहीं था। कैथोलिक चर्च का रवैया इस सच्चाई की पुष्टि कर रहा था। चर्च के विरोध से जर्मन की सांस्कृतिक समस्या का स्तर गिर गया और वह पिछड़ गयी। सम्पूर्ण आस्ट्रिया में ऐसा ही हो रहा था। विश्वास के क्षेत्र में चर्च की स्थिति महत्वपूर्ण थी, किन्तु पैन जर्मन नेता इस बात से इतने चिंतित नहीं थे जितने इस तथ्य से परेशान थे कि जर्मन अधिकारों की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी चर्च ने पूरी ईमानदारी से नहीं निभायी तथा जर्मनों के अधिकारों को अस्तित्वहीन करने वाले स्लावों का भी समर्थन किया।

लोगों को बचाने के लिये शोजरर ने चर्च के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। यह युद्ध आन्दोलन की दृष्टि से शत्रु के किले पर हमला करके उसको तहस-नहस करने का एक मार्ग था। शोजरर को पूरा भरोसा था कि जर्मन के प्रमुख धार्मिक सम्प्रदायों का अति दुःखद बिखराव तथा जर्मन सामाज्य व राष्ट्र की आंतरिक शक्तियों को विशाल समर्थन दिलाने के लिये आन्दोलन का सफलतापूर्वक नेतत्‍व करना अनिवार्य है, किन्‍तु यहां उसकी सोच व परिणाम दोनों ही गलत साबित हुए। जिसने उनकी छवि को धूमिल और स्थिति को डांवाडोल कर दिया। इसके अलावा उच्च वर्ग भी उनके विरुद्ध हो गया। इस स्थिति में आस्टिया के सांस्कतिक संघर्ष की असफलता निश्चित थी।

जर्मन नेताओं ने एक लाख सदस्यों को चर्च से विमुख कर दिया था. किन्त इससे चर्च को काई हानि नहीं हुई। चर्च से अलग हुए ये लोग वो थे, जो काफी समय से पूर्ण आन्तरिक रूप से चर्च से अलग हो चुके थे। नये सुधारवादी आन्दोलन और विगत आन्दोलन में एक अन्तर था कि पिछले आन्दोलन में कुछ उंचे  लोगों ने धार्मिक मतभेदों के कारण चर्च का परित्याग कर दिया और नये आन्दोलन में चर्च का परित्याग करने वाले वे व्यक्ति थे, जो राजनीतिक धारणाओं से प्रभावित होकर धर्म के विरुद्ध हो गये थे। इस नये आंदोलन की असफलता के कारण संचालकों में हकीकत की परख और आस्था का अभाव था। अगर पैन जर्मन आन्दोलन के नेता जनता की समूह की मनःस्थिति को भली भांति समझ लेते, तो एक समय में दो दुश्मनों से मुकाबला न करना पड़ता।

जर्मन आन्दोलन ने अपने उद्देश्य में सफल होने के लिये जो रास्ता अपनाया, वह सही था। क्रिश्चियन सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने जनसमूह के महत्व का उचित अनुमान लगाया और शुरू में ही आन्दोलन के सामाजिक स्वरूप पर बल दिया। जिस कारण उन्हें बड़े जनसमूह का समर्थन प्राप्त हो गया था। निम्न मध्य वर्ग, विशेषकर कारीगरों से सीधे अपील करके, उन्होंने आदोलन के  लिये आस्थावान, दृढ़प्रतिज्ञ और त्याग की भावना रखने वाले लोगों का समर्थन हासिल कर लिया।

क्रिश्चियन सोशलिस्ट पार्टी के संचालकों का यह मानना था कि आस्ट्रिया को बचाने के लिये उन्हें अपनी स्थिति का आधार जातीय नहीं बनना चाहिये। क्योंकि इससे शीघ्र ही आस्ट्रिया के विघटन की सम्भावना थी। उनके अनुसार, वियाना को वर्तमान स्थिति में विभिन्न राष्ट्रीयताओं को फूट डालने वाले तत्वों से बचाना और उनमें एकता बनाये रखना आवश्यक है।

उन दिनों वियाना में राष्ट्रवाद का नाम लेना अपनी मौत को दावत देने के समान था। हैब्जबर्ग राज्य अपने आपको राष्ट्रवाद जैसी छूत की बिमारी से बचाना चाहता था। किन्त इस नीति ने राज्य का पतन कर दिया। इसी नीति के कारण ही क्रिश्चियन समाजवाद का पतन हआ था। क्‍योंकि इस आंदोलन से शक्ति व प्रेरणा का स्रोत छिन गया था। जो सभी दलों में ऊर्जा का स्रोत अर्जित करता था।

जिस मृत समय बौर्जों मास्‍टर का भव्‍य मातमी जुलूस सिटेडर ऐरिंग स्ट्रेस की तरफ मुडा तो लाखों दर्शकों के बीच में हिटलर भी वहां उपस्थित था और उसे देखकर सोच रहा था कि इस व्यक्ति के जीवन की सारी तपस्या बेकार चला गयी, क्योंकि यह राज्य पतन की ओर बढ़ गया। उनकी मृत्यु के वक्त बलकानों में सुलगती चिंगारी अब चहुंओर व्याप्त हो गयी थी।

पैन जर्मन दल का प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने का उद्देश्य बेशक नायाब था। मगर यह दल इस उद्देश्य को पूरा करने के उपाय न खोज सका, जोकि उसकी जसफलता का कारण बना। राष्ट्रवादी होने पर भी इस पाटी ने सामाजिक समस्याओं की उपेक्षा की। जिस कारण इसे जन समर्थन नहीं मिल सका। जबकि धार्मिक सिद्धान्तों पर आधारित यहूदी विरोधी नीति जातीय परेशानी के महत्व की घटनाओं का आधार उचित था। मगर पार्टी सही प्रकार से तथ्यों का आंकलन न कर पायी और साथ ही यह धार्मिक सम्‍प्रदाओं के खिलाफ संघर्ष छेड़ने के लिये उचित साधनों का प्रयोग न कर सकी और अनुचित साधनों का प्रयोग कर अपने ही जाल में फंस गयी।

हिटलर के मन में हेब्‍जबर्ग राज्य के प्रति उदासी बढ़ती जा रही थी। वह जितना भी राज्य की विदेश नीतियों पर विचार करता, उतना ही उसका विश्वास दृढ़ होता जा रहा था कि जर्मन वासियों के लिये यह धूर्त राज्य नि:संदेह एक अपशगुन है। हिटलर ने महसूस किया कि जर्मन साम्राज्य में ही जर्मन राष्ट्र का भाग्य सुरक्षित रह सकता है, और उसका यह विचार केवल राष्ट्र की राजनीति के प्रति ही नहीं था, बल्कि सम्पूर्ण मानव जीवन के प्रति भी सच था।

हिटलर के मन में जर्मन राज्य के प्रति जो प्रेम और स्नेह था, उससे उसे ऐसा लगता था जैसे आस्ट्रिया के पतन के साथ ही जर्मन राष्ट्र का उदय होगा। उसकी यही धारणा बचपन से ही जर्मन राष्ट्र के लिये श्रद्धा का आधार बनी और राष्ट्र के लिये कछ करने के लिये बेचैन हो गया।

हिटलर कभी भी अपनी मातृभाषा जर्मन (लोअर बवेरिया देसी भाषा को नहीं भूला, इसीलिये उसने वियाना की भाषा को कभी सोखने का प्रयास भी नहीं किया, क्योंकि उसे अपनी मातृभाश से अत्याधिक प्रेम था। विरोधियों द्वारा जर्मन संस्कृति के परम्परागत पुरातन वैभव के कुचलने पर उनके प्रति उसके मन में घणा भर गयी। वह अब यहाँ से जाना चाहता था।

वियाना में आते समय एडोल्फ हिटलर एक सीधा-साधा और भोला नवयुवक था। किन्तु वियाना की कठोर पाठशाला ने उसे जीवन के अन्यत गम्भीर एवं महत्वपूर्ण पाठों में शिक्षित किया था। हिटलर को वियाना के कड़वे सच के अनुभवों ने दल के मौलिक व सच्चे सिद्धातों का ज्ञान प्राप्त कराया। जिन्होंने पांच वर्षों के थोड़े समय में ही एक महान आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।

 

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