Monday, May 6, 2024

हिटलर का विचार: संघर्ष किसी भी समस्या का समाधान नहीं

हिटलर को वियाना को छोडे़ हुए कई वर्ष हो चुके थे। वियाना को छोड़ कर वह म्यूनिख में आ बसा था। उस दिन भी वा म्यूनिख में अपने घर पर था, जब से आर्क डयूक फ्रांसिस-फर्नीन्‍डों की हत्‍या का समाचार मिला। हिटलर ने उस समाचार को अस्थिर मन से सुना। उसका विचार था कि गुलामी के जाल बिछाने वाले इस गुस्‍ताख उत्‍तराधिकारी से जर्मन जाति को मुक्‍त करने के लिए बुहत दिनों से छात्र व्‍याकुल थे। ऐसे समय हिटलर को डर हुआ कि कहीं जर्मन छात्रों ने ही तो आर्क डयूक फ्रांसिस- फर्नीन्‍डों की हत्‍या की है।

छात्रों की इस भारी गलती का क्‍या परिणाम होना था, हिटलर इसका सहज ही अनुमान लगा सकता था। स्‍पष्‍ट था कि इस हत्‍या से अत्‍याचारों का सिलसिला शुरु हो जाना था। यदि ऐसा हो जाता तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं था। किन्‍तु जब हिटलर को पता चला कि इस हत्‍या के पीछे सैवरों का हाथ है तो वह आश्चर्यचकित रह गया। क्योंकि गुलामों का प्रिय बन्धु गुलामों की शैतानियत भरी हरकतों का शिकार हुआ। उस समय वियाना सरकार को जो अल्टीमेटम दिया गया, उससे हिटलर असहमत नहीं था। क्योंकि ऐसी दशा में संसार की कोई भी शक्ति उससे अलग कुछ भी नहीं कर सकती थी।

आस्ट्रिया की दक्षिणी सीमा पर एक बरहम और प्राणघातक दुश्मन रहता था, जो बहुधा उस राजसत्ता को छेड़ता और साम्राज्य विनाश के लिये प्राप्त सुविधाओं के उपयोग से कभी नहीं चूकता था। सबसे बड़ा डर यह था कि सम्राट की मृत्यु के साथ ही वह और भी तंग करेगा।

आस्ट्रिया राज्य और इसकी जनता फ्रांसिस जोसेफ के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे। उस वयस्क की मृत्यु के साथ-साथ ही साम्राज्य की मृत्यु भी हो गयी। जनता की नजरों में सम्राट का ऐसे समय में मरना बहुत खटका था। वे ऐसा कदापि नहीं चाहते थे।

हिटलर की नजरों में वियाना सरकारी क्षेत्रों को युद्ध भड़काने का कारण समझना ठीक नहीं था। उसे यूं एकाएक टाला नहीं जा सकता था; लेकिन हां, एक या दो साल के लिये स्थगित जरूर किया जा सकता था। जो भी हो, जर्मन एवं आस्ट्रियन नीति के अभिशाप से उसे सुनिश्चित संघर्ष के लिये प्रस्तुत होना पड़ा। यह एक कुसमय की लड़ाई थी। हिटलर को इस बात पर दृढ़ विश्वास था कि तत्कालीन युद्ध के अवसर पर भी शान्ति रक्षा के लिये प्रयास हो सकता था।

आस्ट्रियन तथा जर्मन राजनेताओं ने इसे टालने का प्रयास किया था। किन्तु प्रतिकूल स्थिति में उन्हें युद्ध के लिये बाध्य होना पड़ा। हिटलर की नजर में यह उनका दुर्भाग्य था। इस प्रकार एक ऐसा युद्ध छिड़ गया, जैसे इसके पूर्व कभी देखने या सुनने में नहीं आया। 1914 में छिड़ने वाला यह युद्ध वास्तव में लोगों की अनिश्चितता स्थिति को समाप्त करने की इच्छा का ही परिणाम था। इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि युवक अपने लहू की आखरी बूंद तक बहा देने के लिये सेना में भर्ती होने लगे। इस उपद्रव की सचना हिटलर को म्यूनिख में मिली। तुरन्त ही उसके मस्तिष्क में दो विचार उभरे-

  • पहला- युद्ध अटल और आवश्यक है।
  • दूसरा- हैब्जबर्ग राष्ट्र अपनी सन्धि का पालन करेगा।

हिटलर को इस बात का दृढ़ विश्वास था कि आस्ट्रियन साम्राज्य अपनी भीतरी राजनीति के कारण अपने मित्र राष्ट्र की सहायता कसी भी हालत में नहीं कर सकता। जो हो, उस राष्ट्र को लड़ना ही था, चाहे उसकी इच्‍छा के विपरीत हो या अनूकूल ।

हिटलर की नजर में युद्ध के प्रति उसके भाव स्पष्ट थे। उसकी नजरों में यह आस्ट्रिया और सर्विया की लड़ाई नहीं थी, बल्कि जर्मनी अपने जीवन के लिये लड़ रहा था। जर्मन जाति अपने अस्तित्व, अपनी स्वतन्त्रता और भविष्य के लिये चिन्‍तित थी। उसने बिस्मार्क के पद-चिह्नों का अनुकरण किया। युवा जर्मनी को पुनः उसकी रक्षा करनी पड़ी, जिसके लिये उसके पूर्वजों ने वीरतापूर्वक वेसिनबर्ग से सीडान और पेरिस तक लड़ाई की थी।

हिटलर के विचार में संघर्ष किसी भी समस्या का समाधान नहीं था। परन्तु यदि इस लड़ाई में विजयी होता तो जर्मन जनता की गिनती संसार की महान जातियों में की जाती और ऐसी दशा में अपने देशवासियों की रोटी में कुछ कमी बिना ही ‘रीच’ संसार के शान्ति संस्थापकों की सिरमौर होती। आस्ट्रिया छोड़ने के पीछे हिटलर के राजनीतिक कारण थे। युद्ध आरम्भ होने पर उसने अपनी राजनीतिक धारणा को व्यवहारिक रूप देने का निर्णय लिया। वह हैब्जबर्ग के हित के लिये नहीं, बल्कि अपने संबंध‍ियों को आश्रय देने वाले साम्राज्य के लिये युद्ध में कूदने को तैयार था।

हिटलर सेना में भर्ती

अगस्त 1914 को हिटलर ने बवेरियम रेजीमेंट में भर्ती होने के लिये महाराजाधिराज लुडविंग तृतीय की सेवा में अपना प्रार्थना पत्र भेजा। उस समय मंत्रिमंडल इतना दयाल था कि उसने हिटलर की अर्जी को मंजूर कर लिया। वैसे भी युद्ध में भेजने के लिये नये सैनिकों की आवश्यकता थी। जिस समय हिटलर को यह पता चला कि उसकी अर्जी को मंजूर कर लिया गया है तो उसकी खुशी का ठ‍िकाना न रहा।

प्रत्येक जर्मन की तरह उस समय इस पृथ्वी पर हिटलर के अविस्मरणीय एवं महत्वपूर्ण जीवन काल का आरम्भ हुआ। उसे आगामी छः वर्ष के लिये सैनिक वर्दी मिली थी। उस महान संघर्ष की तुलना करने के लिये अतीत को भूल जाना पड़ता है। हिटलर अभिमान और दु:ख के साथ उन दिनों पर विचार करता और कुछ सप्ताहों को याद करता, जिसमें अपनी वीर जाति के साथ उसे भी युद्ध करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

हिटलर सैनिक वर्दी में सजा हुआ अपने साथियों के परेड की ड्रिल में खड़ा हुआ, मोर्चे पर जाने के आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। जल्दी ही उसे मोर्चे पर पहुंचने का आदेश मिल गया। किन्तु मन ही मन भय उसे सता रहा था कहीं मोर्चे पर पहुंचने में देर ना हो जाये। एक समय ऐसा आया जबकि प्रत्येक मनुष्य को कर्त्तव्य परायणता औ आत्मरक्षा के लिये संघर्ष करना पड़ा।

युद्ध से आने वाली खबरों ने हिटलर के मन को विचलित कर रखा था, क्योंकि वहाँ से आने वाली अधिकांश खबरें पराजय की होती थीं। आखिर वह दिन भी आ पहुंचा, जब हिटलर को म्यूनिख से युद्ध क्षेत्र की ओर कूच करना था।

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